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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
न कर्मबन्धनं जन्म वैष्णवानां हि विधियते।
जन्म मृत्यु जरा व्याधि विमुक्तास्ते न संशयः।
जो भगवत्गण हैं वे कभी कर्माधीन होकर के जन्म ग्रहण नहीं करते। भगवान के भजन के बल से जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि उनके अपने-आप विवर्जित हो जाते हैं। इसलिये जो लोग भगवान को अपना प्रेम समर्पित कर सकते हैं वे ही प्रेम की एकनिष्ठा को प्राप्त होते हैं और वे ही कृतार्थ होते हैं। तो भगवान के प्रति प्रेम-समर्पण के सम्बन्ध में विचार करने पर यह मालूम होता है कि जीवमात्र में ही अहं-मम भाव है। उसमें अहंता और ममता है ही। किन्तु जो बहिर्मुख जीव हैं वे असली ‘मैं’ को ‘मै।’ नहीं कहते। और असली मेरा है उसको मेरा नहीं कहते। वे जड को देखते हैं तो ‘मैं’ इसको कहते हैं और इसके सम्बन्धी जो स्त्री-पुत्रादि पदार्थ हैं उनको कहते हैं मेरा। यह देह में अहं-बुद्धि का नाम अज्ञान है और देह की अनुकूल सुखकर स्त्री-पुत्रादि में ममता बुद्धि का नाम काम है। अज्ञान और काम से अभिभूत जीव को मिलता क्या है? निरन्तर दुःख-दैन्य, व्याधि, भय-विषाद, शोक-पीड़ा, जन्म-मृत्यु यह उनके भाग्य में प्राप्त होते हैं। तो जिससे यह प्राप्त हो उससे प्रेम काहे का है। इस प्रकार पशुवत जीवन को बिताते-बिताते कभी किसी अनिर्वचनीय सौभाग्य से अगर कही असली ‘मैं’ को जान ले, असी ‘मेरे’ को जान ले तो सच्चिदानन्दमय भगवान को वह कहता है मेरा और भगवान का जो अपना है,सेवक उसे कहता है मेरा, तो-
एकेहि भूतात्मा भूते भूतो विवस्थितः।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जल चन्द्रवत्।
यह भगवान इस प्रकार के हैं। एक ही भगवान। जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल पात्रों में प्रतिबिम्बित होकर के अनेक दीखते हैं और आकाश की ओर देखने वाले को एक दीखते हैं इसी प्रकार से देह-दृष्टि से मैं की अनन्तता है और जो सर्वगुण सुलभ भगवान को देखते हैं उनमें ‘मैं’ की एकता की उपलब्धि होती है।बहिर्मुख जीव जो हैं वे देह को ‘मैं’ कहकर के रहते हैं। उनकी भ्रांत धारणा कभी मिटती नहीं है। उनके लिये सुखकर क्या है- विषय भोग। मकान, जमीन, व्यापार, स्त्री, पुत्र, मकान, वाहन, कीर्ति, यश, मान, पूजा यह जो है इनमें उनकी मति रहती है। इसी में वे ममता-बुद्धि का पोषण करते हैं। इन्हीं को बटोरते हैं, इन्हीं की रक्षा में रहते हैं। इसके बटोरने में रोना, रक्षा मे रोना और विनाश में रोना; यह उनके हाथ लगता है। जो किसी जन्मान्तरीय सौभाग्य से, पुण्य-बल से, सन्तकृपा से जो ज्ञान योग के मिलन- स्वरूप सारे आत्माओं के आत्मा भगवान को अहम समर्पण करके देह में अहंकार जनित महादुःख से छूट जाते हैं वे वास्तव में भाग्यवान हैं। उनकी इन वस्तुओं में ममता नहीं रहती है और जो भक्ति योग की साधना में निरत होकर स्त्री-पुत्रादि, वित्त आदि में फैली सारी ममता को सब जगह से हटाकर एक मूलस्वरूप भगवान में नियोजित कर देते हैं वे भगवान के प्रेमानन्द सागर में निमग्न हो जाते हैं। परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण जीव रति करता है पाप में, मति रखता है पाप में, गौरव बोध करता है पाप में। इसलिये वह मायाहत बुद्धि आसुर-भावापन्न दुष्कृति परायण मूढ़ नराधम भगवान के शरणापन्न होता नहीं। भगवान कहते हैं-
न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।
यह बहिर्मुख जीव अनादिकाल से जन्म में अभ्यस्त हैं, देह में अहम्बुद्धि में अभ्यस्त हैं, देह के सम्बन्धी पदार्थ में ममता बुद्धि से यह अभ्यस्त हैं इसलिये बेचारे दुःख में ही पड़े रहते हैं। यह अच्छे संग में आ जायें, महासौभाग्य जब इनका जागे। सौभाग्य और दुर्भाग्य का यहाँ पर भेद होता है जो विषयों में, भोगों में, वैभव में, वित्त में, स्त्री-पुत्रादि में, मान-यश में जो सौभाग्य मानता है वह महान दुर्भाग्यपूर्ण है और इन सबमें जिसकी ममता बुद्धि हट जाती है और जो अपनी ममता को भगवत चरण में समर्पण कर सकता है वह महासौभाग्यवान है इसमें कोई संदेह नहीं। सौभाग्य सबको नहीं मिलता; कोई-कोई इस सौभाग्य को प्राप्त होते हैं। बहुत थोड़े जीव ऐसे होते हैं जो भगवान को सर्वस्व मानकर अहं का समर्पण करते हैं। अहं को ब्रह्म में स्थापित कर देने वाले और ब्रह्म को मैं मानने वाले ‘ब्रह्मेवाहम्’ और अहं ब्रह्मस्मि’ इस प्रकार की सत्य अनुभूति करे ब्रह्मानन्द में निमग्न होने वाले बहुत थोड़े जीव होते हैं। यह अत्यन्त दुर्लभ हैं। कोई संन्देह नहीं। यह बहुत ऊँची स्थिति है। परन्तु जो भगवान में ममता समर्पण करके, भगवान को मेरा मानकर, उनको प्रेमदान दे सकते हैं उनकी संख्या तो इनसे भी बहुत अल्प है। आत्माराम-आत्म-साक्षात्कार किये हुए, ब्रह्म को अपना स्वरूप मानने वाले महात्मा बहुत दुर्लभ है। बड़ी ऊँची स्थिति है। बहुत थोड़े होते हैं जो अपनी ममता भगवान के अर्पण कर दे। भगवान को मेरा अनुभव कर सके ऐसे प्रेमी भक्तों की संख्या बहुत कम है।
मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः।
सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिश्वपि महामुने।
देह में अहम बुद्धि विहीन ब्रह्मज्ञान सम्पन्न सिद्धों में भी श्रीनारायण सेवन परायण प्रशान्तचित्त पुरुष अत्यन्त दुर्लभ है। असंख्य मुक्तों में इस प्रकार के भाग्यवान कोई एकाध ही मिलते हैं अधिक नहीं मिलते।
इसलिये यह स्वरूपानन्द वितरण रूप जो रमण है भगवान का यह ऐसे भक्तों में ही होता है। भगवान में ममता समर्पण करके भगवान को मेरा बना लेना, मेरा अनुभव करना, यह अत्यन्त दुर्लभ है। देहादि में अहम-मम भाव की पीड़ा से जब घबरा जाता है आदमी तब वैराग्य का उदय होता है और तब वह आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिये साधन करता है। विषय-भोग की कामना वह छोड़ देता है क्योंकि उसमें पीड़ा का अनुभव हुआ। इस कामना को ही शास्त्राकार कहते हैं ‘मुक्ति-काम।’ यह समझने का विषय है। मुमुक्षु में क्या होता है? मुमुक्षु बन्धनजनित दुःख का अनुभव करता है। नहीं तो मुक्ति का कोई स्वारस्य नहीं। छुटकारा किसका? जो बँधा हुआ है उसका। बन्धन का जो दुःख है, यही मुक्ति की कामना को उत्पन्न करता है। जब संसार के दुःखों से संतप्त हो जाता है मनुष्य, जब भोगते-भोगते कहीं भी उसको शांति नहीं मिलती; तब एक ऐसा जीवन में क्षण आता है।
क्रमश:
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