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श्रीरासपंचाध्यायी

हम देह को सुख देने के लिये, शरीर के आराम के लिये ही सारे पदार्थों का सेवन करते हैं। हमारा कमाना, खाना इन दो ही चीजों के लिये होता है। शरीर को आराम मिले और नाम का नाम हो। इस मिथ्यानाम का ना हो और पाञ्चभौतिक मल-मूत्र से भरा हुआ यह शरीर-इसको आराम मिले। देहासक्ति को लेकर के हम देह से प्रेम करते हैं और गोपियों को जो देह से प्रेम है यह देह के लिये नहीं है यह भगवान के सुख के लिये है। गोपियों का जो वस्त्राभूषणादि सेवन है, ग्रहण है, देह को सुसज्जित करना है- यह भी अपने लिये, अपनी शोभा के लिये नहीं है। अपनी शोभा के लिये हो तो वह देहासक्ति है। वहाँ प्रेम की कहीं कल्पना भी नहीं है। यह तो वेश्याओं का काम है-अपने को सजाना। पतिव्रता भी नहीं सजाती पति को दिखाने के सिवाय।

इसलिये भगवान ने कहा- यह जो श्रीगोपांगनाएँ हैं इनका देह को सज्जा करने का, सुशोभित करने का हेतु है केवल मेरा सुख, केवल मैं। इसलिये निगूढ़ प्रेमभाजन सबसे उत्तम सबसे श्रेष्ठ है। मेरा प्रेमपात्र तीनों लोकों में कोई नहीं है; गोपांगनाओं को छोड़कर। इसलिये मेरा सारा-का-सारा, जैसा जो कुछ मैं हूँ, यह गोपांगनाओं में उत्तर आया है। लोग मेरी महिमा गाते हैं, मेरी आँख से मेरी महिमा न जानकर अपनी-अपनी बुद्धि से महिमा का गान करते हैं पर भगवान का भगवान की दृष्टि में महिमा का पदार्थ क्या है? इसको नहीं जानते। इसी प्रकार सेवा करते हैं अपने मनोनुरूप और उनकी सेवा को भगवान कहते है कि मैं ग्रहण भी करता हूँ लेकिन मेरी सेवा वास्तव में क्या है इसको मैं ही जानता हूँ।

अब तीसरी बात है श्रद्धा। हम अपनी श्रद्धा से भगवान को क्या-क्या बना लेते हैं। तामसी श्रद्धा हमारी है तो न जाने भगवान को कैसे रूप वाले बना लेते हैं। हम अलग-अलग अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान के रूप की कल्पना करते हैं पर भगवान की श्रद्धा का भगवान की दृष्टि में क्या स्वरूप है यह भगवान ही जानते हैं और ‘मन्मनोगतम्’ भगवान के मन में क्या है, यह भगवान का मन ही जानता है लेकिन वो कहते हैं कि श्रीगोपांगनाएँ जो मेरी निगूढ़ प्रेमभाजन हैं इनमें सारा-का-सारा मैं उत्तर आता हूँ। इसलिये मेरा माहात्म्य, मेरी सेवा का स्वरूप, मेरी श्रद्धा का स्वरूप, मेरे मन में क्या है इसका यथार्थ दर्शन, तत्त्व से केवल गोपियों को होता है और किसी को होता ही नहीं।

चार प्रकार की सेवा बनती है- एक तो आज्ञा मानकर, एक संकेत पाकर एक रुचि देखकर और एक सेव्य के मन को अपने मन में उतारकर। कोई कहे कि भई! अमुक प्रकार से हमारी सेवा करो उस पर भी अपना मन लगा देता है बीच में। कोई बोले, उन्होंने बताया है न! यह ठीक होगा। वह तो आज्ञा से भी परे की चीज हो गई। किसी को आज्ञा देनी पड़े सेवा कराने के लिये तब वैसी सेवा कर सके यह आज्ञाकारी सेवक है। दूसरे किसी को और आज्ञा की आवश्यकता नहीं जबान से नहीं बोलना पड़ता, संकेत पाकर उसी के अनुसार आचरण करता है वह संकेतदर्शी सेवक। तीसरा वह जिसके लिये संकेत नहीं आवश्यक होता है। वह रुचि पहचान गया, सेव्य की रुचि उसको हृदयंगम हो गयी, सेव्य को कब क्या रुचिकर होता है यह वह जान गया तो वहाँ रुचि का अनुसरण करने वाला जो सेवक है वह रुचि अनुसारी होता है। यह उससे ऊँचा और चौथा वह है सर्वोत्तम सेवक जिसके मन में सेव्य का मन उतर आता है। सेव्य को अपनी बात जनानी नहीं पड़ती अपनी आज्ञा से और जना सकता है नहीं। मन में हमारे कब, क्या, किस प्रकार की कल्पना होती है उसको बताने के लिये भाषा में शब्द नहीं है।

मन की भाषा जब शब्द की भाषा में आती है तो विकृत होकर के आती है। पूरी-पूरी चीज मन की वाणी बता नहीं सकती। मन की भाषा को समझने वाला होता है मन और वह मन जब तक अपना न हो तब तक नहीं समझमें आता। श्रीरामचरिमानस में सीता जी को प्रेम तत्त्व बतलाते हैं श्रीरामचन्द्रजी तो यही बात कहते हैं। हनुमान जी से पूछा मैया ने कि सरकार ने मेरे लिये क्या कुछ संदेश कहलवाया है। बोले हाँ! कहलवाया है। क्या संदेश कहलवाया है? एक अर्धाली में सारे प्रेम के स्वरूप की पूरी-पूरी व्याख्या कर दी गोस्वामी जी ने इतने चतुर हैं।राम जी ने क्या कहलवाया सीताजी से बतलाया-
तत्त्व प्रेमकर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मन मोरा।
सो मनु रहत सदा तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि मांही।

तेरे और मेरे प्रेम के तत्त्व को जानता है केवल मेरा मन। वाणी से नहीं कह सकते भगवान। सीता के साथ राम के प्रेम का स्वरूप क्या है? राम की वाणी में सामर्थ्य नहीं है कि उसका वर्णन कर सके। राम की वाणी, राम के हृदय के प्रेम का वर्णन नहीं कर सकती। तो कहे कि आप अपने मन की बात बताओ? कैसे हैं? तो कहा वह मन हमारे पास है नहीं। ‘सो मन रहत सदा तोहि पाहीं।’ सदा, कभी हम भेज दें मनको सो नहीं। हमारा मन तो रहता है निरन्तर तुम्हारे पास। अब मन में क्या है सो तुम जान लो। ‘मन्मनोगतम्,.............जानन्ति तत्त्वतः’ प्रेम का यह स्वरूप होता है।

जहाँ प्रेम का वास्तविक प्राकट्य होता है वहाँ प्रेमास्पद और प्रेमी का मन एकमेक हो जाता है। उसका मन उसमें जाकर अवतरित होता है। मन की बात बतानी नहीं पड़ती, मन की बात का स्वरूप पूरा-पूरा मन जान लेता है। नहीं तो क्या होता है कि मन में एक बात आयी उसके लिये शब्दों की योजना की, रसना से शब्द बने आकाश के शब्द-शब्दों की ध्वनि का उच्चार हुआ जिह्वा से वो शब्द व्यक्त रूप में बाहर आये। वह श्रोता के कर्णेन्द्रिय में गये, कर्णेन्द्रिय के द्वारा मन में गये और संकल्प-विकल्प के साथ मन उन शब्दों को बुद्धि के पास ले गया तब बुद्धि ने उसका अर्थ बताया। अब इतना कोशिश करने के बाद उसके मन की बात का अभिव्यक्ति करण हुआ सुनने वाले के मन में।
(हनुमान प्रसाद पोद्दार)
क्रमश:

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