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श्रीरासपंचाध्यायी - हनुमानप्रसाद पोद्दार

इसका अर्थ यह नहीं कि उनके स्वरूप में कोई भेद है या वितरण में कोई पक्षपात है। यह चीज नहीं है। यहाँ तक कह दिया श्रीमद्भागवत में-

साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मद्न्य् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि।
वह मेरा हृदय और मैं उनका हृदय। हृदय की अदला-बदली हो गयी। साधु मेरा हृदय और मैं उनका हृदय हूँ। उनको छोड़कर मैं किसी को नहीं जानता और मुझको छोड़कर वे किसी को नहीं जानते। दो नहीं रह गए।अतएव सर्वभूतों में समान रहने पर भी भगवान का भक्त पक्षपात यदि कोई माने तो उसे मान लेने में कोई आपत्ति भी नहीं है। पक्षपात तो नहीं है पर भक्त हृदय जितना उसे ग्रहण करता है उतना उसे दूसरा ग्रहण नहीं कर सकता। भक्त हृदय में जो प्रियत्व है यह कहीं और रहता नहीं; इसलिये पक्षपात की-सी बात दीख पड़ती है। क्यों दीख पड़ती है? इसलिये कि यह प्रेमी भक्तों के साथ आचरण करने में भगवान की प्रेमाधीनता साथ रहती है। आत्मारामों के साथ व्यवहार करने में प्रेमाधीनता नहीं है। वहाँ तो आत्मस्वरूप का दान है और यहाँ प्रेमाधीनता है। यह और कहीं नहीं। जगत में भी देखा जाता है कि जो उदार लोग होते हैं, दानी लोग-उन दानी लोगों को कोई दान लेने वाला ठीक मिल जाय तो उन्हें बड़ा आनन्द होता है। वह तो देने के लिये तैयार ही बैठे हैं पर कोई ग्रहण करने वाला मिल जाता है ग्राहक तो उनको बड़ा आनन्द होता है और दी हुई वस्तु ग्रहण करके यदि वे देख लेते हैं कि इसको पाकर लेने वाला बड़ा सुखी होता है तब तो उनके आनन्द की सीमा ही नहीं रहती। वस्तु के देने में आनन्द और देकर देखते हैं कि वह इसको ठीक भोग रहा है, सुख भोग रहा है, तो उन्हें बड़ा आनन्द होता है।

इसी प्रकार यह आनन्द-दानशील जो भगवान हैं यह भगवान भी जब आनन्द का ग्राहक मिल जाता है तो बड़े आनन्दित होते हैं। किंतु जो विषयासक्त जीव हैं वे दिये हुए आनन्द के साथ धूल मिला लेते हैं, मिट्टी मिला देते हैं। इसलिये उनका यह मिश्रित आनन्द उनको भी आनन्द नहीं देता और भगवान भी देखते हैं कि ये तो ठीक नहीं है। इसी प्रकार जो अनासक्त आत्माराम हैं वे स्वरूपानन्द सिन्धु में विलीन हो जाते हैं। स्वरूपानन्द सागर के साथ ये घुल मिलकर एक हो जाते हैं तो इनको भी भगवान आनन्दास्वादन करते देख नहीं सकते। कैसे देख सकें यह तो विलीन हो गए आनन्द सागर में। पर जो प्रेमी भक्त हैं उनको तो भगवान देखते है कि यह हमारे प्रेमानन्द को पाकर रस-विलासन में मत्त हो रहे हैं।इसलिये अपने स्वरूपानन्द का ठीक-ठीक ग्रहण करने वाले और सुचारु रूप से आस्वादन करने वाले भक्तों को देख करके तथा उनमें वितरण करके भगवान अधिक आनन्द प्राप्त करते हैं। इसलिये यह जो स्वरूपानन्द का वितरण है भगवान का यह भक्तों में जाकर ही भगवान को आनन्दास्वादन देने वाला होता है।

यहा रमण शब्द का अर्थ है- आनन्दास्वादन और प्रेमाधीन भगवान का भक्तों में आनन्द-वितरण। यह तो सिद्ध हो ही गया कि भगवान का रमण स्त्री-विलास और काम-क्रीड़ा तो है ही नहीं। इसकी तो कल्पना ही नहीं है। यह तो कल्पनातीत चीज है।आनन्दास्वादन का यहाँ किसी प्रकार से भगवान के साथ सम्पर्क ही नहीं। तो ‘भगवान ने रमण की इच्छा की’ इसका यही अर्थ है कि आनन्दमय भगवान ने अपने प्रेमी भक्तों के वासनानुरूप भावानुरूप आनन्द-वितरण करके स्वरूपानन्द आस्वादन की इच्छा की। यह ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ का अर्थ है।इसलिये जो युक्ति अब तक दी गयी प्रमाण दिया गया; यह है तो बहुत थोड़ा पर समझने वाले लोग इतने से ही समझ जायेंगे कि भगवान का स्वरूपानन्द वितरण यहाँ पर है-यह रमण का अर्थ है।

जीव गोस्वामी ने अपनी टीका में लिखा है-
सर्वातिशायी प्रेमवतीनां व्रजसुन्दररीनां मनोरथ परिपूर्णमेव
प्रियमात्तसुखार्थ सर्वं कुर्वतः श्रीभगवतोमुखतरप्रयोजनम् इति
दर्शयन् तदेव च तस्य सर्वातिशायीसुखमिति च प्रकटयन् तदे योगाभिस्तारिणी यह रासक्रीडाम् पञ्चेमृततुल्यैः पञ्च.............वर्णयते।
अपने किसी भी प्रियजन भक्त के आनन्दवर्धनार्थ जो कुछ भी कार्य है भगवान करते हैं। अतएव प्रेमवती व्रज सुन्दरियों के मनोरथ को पूर्ण करना ही यहाँ भगवान का मुख्यतर प्रयोजन है। वहीं यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ आनन्दास्वादन है। इस परम तत्त्व के प्रकाश के लिये ही श्रीमद्भागवत के पाँच इन्द्रियों के समान यह पाँच अध्याय हैं। ये भगवान के साथ गोप रमणियों के क्रीडा योग्य लीला का वर्णन रास-क्रीडा के नाम से वर्णित है। यहाँ यह कहते हैं कि भगवान जिनको प्यार करते हैं; वही भगवान के प्रिय है और भगवान भी उनके प्रिय हैं। यह गीता में भगवान ने घोषणा की, चाहे काल कुछ बताये पर कहा-‘भक्तिमान्यः स मे प्रियः’ जो भक्तिमान है वह मेरा प्रिय है। भक्तिमान की प्रियता भगवान को स्वीकार है, विशेष रूप से। भगवान सब जीवों में समदृष्टि होने पर भी जब अवतीर्ण होते हैं तो परित्राण किसका करते हैं? साधु का करते हैं तो वहाँ वह विषम नहीं है। साधुओं का परित्राण करते हैं और दुष्कृतों का विनाश करते हैं। भगवान के जो प्रियजन है वही भगवान के भक्त हैं वही साधु हैं।तो ‘मद्भक्तानां विनोदार्थ करोमि विविधा क्रियाः’ यह पद्मपुराण का वचन है कि हम अपने प्रियजनों का प्रिय कार्य करने के लिये सब लीला करते हैं। भगवान की लीला का कारण है प्रियजनों का प्रिय कार्य। अपने प्यारों को सुख देना। प्यारों में-चाहे कितने भी कोई प्यारें हों।व्रज सुन्दरियों के समान प्रिय भगवान का आजतक कोई हुआ नही है। बोले प्रमाण? तो प्रमाण तो बहुत है पर भगवान के शब्द ही यहाँ पर उद्धृत किये जाते हैं-
निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते।
ताभ्यां परं न मे पार्थ निगूढ़प्रेमभाजनम्।
मन्माहात्म्यं मत्सपर्या मच्छ्रद्धां मन्मनोगतम्।
जानन्ति गोपिकाः पार्थ नान्ये जानन्ति तत्त्वतः।

भगवान का संवाद है। भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! श्रीगोपांगनाएँ अपनी देह को मेरी सेवा का उपकरण ही मानती है। इनसे भोग-सुख मिलेगा यह नहीं मानती। अपने शरीर से हमें भोग-सुख मिलेगा, इसके लिये शरीर है ये यह नहीं मानती। अपने देह को भगवान की सेवा का उपकरण मानती हैं और इसीलिये देह से प्यार करती हैं। हम लोगों का जो देह से प्यार करना है यह दूसरा। हमारी देहासक्ति है।
क्रमश:

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