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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

इसलिये इस पर विचार करते हुए कहते हैं कि जैसे सूर्य सर्वत्र अपनी किरणों का वितरण करता है। इसी प्रकार आनन्दमय भगवान भी सर्वत्र स्वरूपानन्द का वितरण किया करते हैं। यह भगवान का स्वभाव है।

‘ऐते सेवा निन्दस्यामि यामि भूतानि मात्रापजीवन्ति’
यह वृहदारण्यक उपनिषद् वचन है कि आनन्दमय भगवान के स्वरूपानन्दकण का ही सारे जीव उपभोग करते हैं। और कहीं है ही नहीं आनन्द। सूर्य के सर्वत्र समभाव से किरणों का वितरण करने पर भी जैसे सर्वथा समानभाव से प्रकाश नहीं होता है। यद्यपि सूर्य के वितरण में कमी नहीं है परन्तु समान भाव से प्रकाश नहीं होता है। सूर्य किरणें जब सूर्यकान्त मणि पर पड़ती हैं तब उसका विशेष प्रकाश होता है। सूर्य की किरणें जब किसी तेजस पदार्थ पर किसी चमकती हुई चीज पर पड़ती है तो विशेष चमक होती है। सफेद चीज पर पड़ती है तो चमक तो नहीं होती परन्तु उज्ज्वल प्रकाश होता है और अगर मिट्टी के घड़े या काली चीज पर पड़ती है तो मिट्टी के घड़े पर केवल उत्ताप दीखता है और काली जगह पर उत्ताप का भी अनुभव हाथ लगाने पर होता है। सूर्य की किरणों में तो भेद है नहीं। यह भेद है इसलिये कि उसके जो ग्रहण करने के पात्र है उनमें अन्तर है। भगवान के स्वरूपानन्द का जो वितरण है, वह प्रेमी भक्तों में तो पैदा करता है प्रेम-विकार। ‘विकार’ शब्द रस शास्त्र में आता है पर यह लौकिक विकार वाला विकार नहीं है। प्रेम की जो दशाएँ हैं- प्रेम के प्रादुर्भूत होने पर जिस प्रकार की स्थितियाँ होती हैं उन स्थितियों का नाम विकार है। इसको सात्त्विक भाव का फल कहा है। इन भक्तों में तो दो विकार होते हैं-प्रेम विकार और सेवा रसास्वादनादि विकार-वह भगवान की सेवा के रस का आस्वादन करते हैं और उनमें प्रेम की विचित्र अवस्थायें प्रादुर्भूत होती हैं। जो अनासक्त जीव हैं उनको दुःख निवृत्ति और आत्मारामलाभता प्राप्त होती है और विषयासक्त जीव हैं उनको किंचित विषयों में आनन्द की उपलब्धि होती है। इसलिये जैसे सूर्य की किरणों में सूर्य का पक्षपात न होने पर भी सूर्यकान्त मणि देखने पर मालूम पड़ता है कि सूर्य ने पक्षपात किया, यहाँ देखो, ज्यादा प्रकाश हो गया, और पास रहने वाली चीज जल भी गयी और बेचारे मिट्टी के पात्र को यूँ ही रहने दिया। इससे लोगों को दीखता है कि यह पक्षपात है।

इसी प्रकार यह भगवान के आनन्द वितरण में पक्षपात न होने पर भी प्रेमी भक्त, अनासक्त जीव और विषयासक्त जीव इनके आनन्दोपभोग में तारतम्य देखने पर वहम हो जाता है लोगों को कि भगवान के आनन्द वितरण में कहीं पक्षपात है। परन्तु भगवान के आनन्द वितरण में पक्षपात नहीं है। जैसे गंगा बह रही है। गंगा का जल सबके लिये समान है कोई चाहे जितना ले ले। परन्तु अपने-अपने पात्र के अनुसार जल आता है। बहते हुए गंगा में जिसका जितना बड़ा पात्र उतना ही जल लेने में समर्थ होता है-छोटे पात्र में थोड़ा और बड़े पात्र में ज्यादा। इसी प्रकार भगवान सर्वत्र सम होेने पर भी और उनके स्वरूपानन्द वितरण की व्यवस्था भी सम होने पर विषयासक्त जीव नाना प्रकार के विषयों का सम्बन्ध रहने के कारण आनन्द का छुद्र कण ही ग्रहण करते हैं। जैसे थोड़ी चीनी है और उसमें नीम-चूर्ण मिला दिया जाय तो चीनी का स्वाद तो आयेगा। जो मिठास है वह चीनी की आयेगी परन्तु नीम के कारण से खारापन रह जायेगा। इसी प्रकार विषय सम्बन्ध अधिक होने के कारण से विषयानन्द वह आनन्द नहीं देगा जो आत्मरामजनों को मिलता है। जो आनन्द सेवा रस में मिलता है प्रेमियों को, वह उनमें नहीं मिलता है।

भगवान का स्वरूप है आनन्द। रमण शब्द का मुख्य अर्थ है आनन्दास्वादन। भगवान जीवों में स्वरूपानन्द का आस्वादन कराते हैं। भगवान ही अपने स्वरूपानन्द का वितरण करते हैं। इसलिये आनन्दास्वादन एक होने पर भी जीव का दूसरा और आत्मारामों का दूसरा तथा भगवान का दूसरा। अनासक्त जीव जो है वे विषय-सम्बन्ध मात्र को दुःख हेतु मानकर और सब प्रकार के विषयों का सम्बन्ध परित्याग करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म के अनुसंधान में रत रहते हैं; और ब्रह्मानन्द का अनुसंधान पाकर उसमें विलीन हो जाते हैं। यह उनका आत्मरमण है। यह आनन्दास्वादन है। विषयी लोग जो हैं वे विषयों में आनन्द की उपलब्धि करते हैं, उनका आनन्द क्षणिक होता है। तत्काल आनन्द बदला और दुःख में परिणित हो गया। कहते हैं कि ब्रह्मानन्द की प्राप्ति जो है इसमें और भगवान के स्वरूपानन्द में थोड़ा अन्तर है। वह अन्तर क्या है कि भगवान का जो स्वरूपानन्द वितरण है वह प्रेमीगण में सुख का वितरण करके, स्वरूपानन्द का वितरण करके उसका रस भगवान लेते हैं। यह भगवान का स्वरूपानन्द वितरण प्रेमियों का सुख देने में निमित्त बनकर सुख का आस्वादन कराता है। ऐसा क्यों होता है? प्रेमी भक्त ही अपने प्रेमानुरूप सम्बन्ध से भगवान को अपना मानते हैं। भगवान मेरे और अपने-अपने प्रेमानुभवरूप से भगवान के स्वरूपानन्द का आस्वादन करते हैं। वात्सल्य वाले वात्सल्य का, सख्य वाले सख्य का, मधुर वाले इस प्रकार से उनको आनन्द की प्राप्ति होती है। इसमें और भेद नहीं है कोई कैसा भी हो।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्।
श्रीमद्भागवत के इस वचन से यह सिद्ध होता है-भगवान ने उद्धव से कहा है कि सारे जीवों में आत्मस्वरूप होते हुए भी भक्त मेरे परम प्रिय हैं। उनकी भक्ति से, उनके प्रेम से मैं निरन्तर उनके वश में रहता हूँ। भक्ति का माहात्म्य यहाँ तक कि भगवान की भक्ति करने से श्वपाक-कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल जाति का भी सारे पापों से मुक्त हो जाता है। गीता में भी भगवान के ऐसे बहुत से वचन आते हैं। ‘भक्त्या त्वनन्यया शक्यः’ इत्यादि। गीता में भक्तों के लिये खास बात कही है कि-
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।
इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे भूतों में, दूसरे प्राणियों में स्वरूप-वितरण में भेद है। भक्त का जो प्रेम है उनकी जो भक्ति है वह भगवान के स्वरूपानन्द को जितना ग्रहण करती है, उतना ग्रहण और लोग नहीं कर सकते- इसीलिये भक्त उनके और वे भगवान के।
क्रमश:

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