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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
मधुर रस में शान्त, दास्य इत्यादि चतुर्विध जो रस है उनकी विषय-वितृष्णा, विषय-वैराग्य, इन्द्रिय-दमन, कृष्णनिष्ठा, कृष्णसेवा असंकोच और हीन ज्ञान यह सब रहने के साथ-साथ और एक विशेष बात होती है कि अपने सारे जीवन के द्वारा, अपने सारे अंगों के द्वारा भगवान की सेवा का अधिकार प्राप्त होता है। परिपूर्ण रूप से श्रीकृष्ण सेवा रसास्वादन होता है।
परिपूर्ण कृष्णप्राप्ति एइ प्रेमा हैते।
एइ प्रेमेर वश कृष्ण, कहे भागवते।
कहते हैं कि परिपूर्ण कृष्ण प्राप्ति इस प्रेमाभक्ति से होती है। तब परिपूर्ण रूप से कृष्ण सेवानन्द का रसास्वादन होता है। इसीलिये इसका नाम मधुर रस है। इसीलिये इसका नाम उज्ज्वल रस है। नाना प्रकार से इसका यों वर्णन आता है। और रसों में यह पूर्णता नहीं प्राप्त होती। इसलिये इस श्रृंगार रस में पूर्णता होती है।निज-निज भावे सबे श्रेष्ठ करि माने।
निजभावे करे कृष्ण सुख आस्वादने।
इनमें कोई भी किसी को नीचा नहीं कह रहे हैं। न तो शान्तरस का ज्ञानी नीचा है और न शान्तरस का भक्त नीचा है और न ही दास्य, सख्य, वात्सल्य वाले नीचे हैं। यह अपने-अपने भावों से सभी श्रेष्ठ हैं और सभी अपने को श्रेष्ठ मानते हैं और अपने-अपने भाव के अनुसार श्रीकृष्ण के सुख का आस्वादन करते हैं परन्तु जब हम विचार करते हैं तारतम्य पर तो ऐसा अनुमान होता है कि-
सब रस हैते श्रृंगारे अधिक माधुरी’
सब रसों की अपेक्षा श्रृंगार माधुर्य अधिक है। इसलिये इसका नाम मधुर रस है। शास्त्रों में जो वचन मिलते हैं; पुराने इतिहास में भगवान के चरित्र, लीला के मिलते हैं उन पर विचार करने से यही निष्पन्न होता है कि मधुर रस में भगवान की सेवा सबसे अधिक होती है और सर्वविध होती है और इसमें सेवानन्दास्वादन सबकी अपेक्षा अधिक होता है। जो भगवान चाहें वहीं सेवा तैयार। किसी रस का बीच में बाधक होना इसमें नहीं है। इस रस को जो अपने जीवन में उतारने हैं वे भगवान को प्राण-वल्लभ कहते हैं। यहाँ प्राण-वल्लभ कह सकते हैं, दास्य रस में भगवान प्रभु हैं, भक्त दास हैं या दसी ही है। सख्य रस में सजातीयता सापेक्ष हैं। समभावापन्न होना चाहिेये या सजातीयता होनी चाहिेये। इसलिये उस रस में सखा अथवा सखी मूर्ति का विशेषत्व है। वात्सल्य रस में भगवान में पुत्र-ज्ञान है अतएव इस रस में भक्तगण अपने को यथायोग्य पिता माता इत्यादि मानते हैं। मधुर रस में केवल प्रेयसी भाव है। इसलिये यहाँ गोपी भाव को प्राप्त साधक ही उस रस में उतर सकता है अन्य नहीं उतर सकते।तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षातमन्मथमन्मथः।
इत्यादि श्लोकों की व्याख्या जब होगी तब इस विषय पर विशेष प्रकाश डाला जायेगा कि भगवान क्या है, कैसे हैं? एक बात यह ध्यान में रखने की है कि भगवान के आनन्द वर्धन करने के लिये इनके साथ विलास विहारादि के लिये चित्त में व्याकुलता होने पर भी उस व्याकुलता के साथ प्राकृतकाम और प्राकृत कामाधिष्ठान के देवता मदन का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह सम्बन्ध यदि आता है तो वह प्रेम नहीं है, मधुर रस नहीं है। वह नरकाग्नि का प्रेरक दण्डनीय भाव है तथापि कोटि-कोटि मन्मथ मन्मथरूप श्रीभगवान ही साक्षात मन्मथ रूप से उस भक्त के चित्त को मंथन कर डालते हैं।
इसलिये इनके साथ सच्चिदानन्दमयी रसमीय रासलीला में सेवा की सम्भावना है। इसी सम्भावना को बताने वाला 32 वें अध्याय का प्रारम्भ होता है। जहाँ ‘तासामाविरभूच्छौरिः’ कहते हैं। इसमें अब आगे बतायेंगे कि रमणी भावापन्न-गोपीभावापन्न प्रसंग में श्रेष्ठ कौन है। अर्थात यह ‘रन्तुं मनश्चक्रे-रमण-रमण का पात्र कौन है? भगवान का जो स्वरूपानन्द वितरणरूप आनन्द रसास्वादन है इस आनन्द रसास्वादन का अधिकार केवल श्रीगोपांगनाओं को है।भगवानपि ता रात्रीः शारदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योममायामुपाश्रितः।
‘भगवानपि ता रात्रीः’ - सबसे पहले भगवान शब्द है। भगवान शब्द का क्या अर्थ हैं और भगवान ने रमण करने की इच्छा की इसलिये इस रमण का स्वरूप क्या है? इस विषय पर अपनी बातचीत हो चुकी है। रमण शब्द का अर्थ है- आनन्दास्वादन। रमण शब्द व्यवहार होता है लौकिक विलास के लिये भी, रमण शब्द का व्यवहार है आत्माराम महात्माओं के आत्मरमण के लिये भी और यहाँ तो भगवान के रमण की बात है ही। इसमें विषयासक्त और अनासक्त-इन दो प्रकार के गुणों का आनन्दास्वादन है अर्थात यह आनन्द का आस्वादन है। संसार लोगों का तो विषय भोग में और अनासक्त महात्माओं का है आत्म-साक्षात्कार-आत्म-रमण में और भगवान का आनन्दास्वादन है स्वरूपानन्द वितरण में। यह बात अपनी हो चुकी है कि भगवान जब षडैश्वर्यसम्पन्न हैं और पूर्णकाम, नित्यकाम, आप्तकाम हैं तो भगवान में विषयकाम हो नहीं सकता और आनन्दास्वादन इनमें है नहीं। आत्मारामों का जो आत्मरमण है उसमें भी अनासक्त भाव होना चाहिये, सुख की इच्छा होनी चाहिये, मोक्ष की इच्छा होनी चाहिये। वह भगवान में है नहीं-यह स्वयं आनन्द स्वरूप है, आनन्द के मूल हैं। नित्य मुक्त हैं तो इनका आत्मरमण है नहीं फिर इनका क्या है? इनका है स्वरूपानन्द वितरण-यह तीन भेद हैं।
जीव के आनन्दास्वादन का उद्देश्य है-दुःख-निवृत्ति। जो विषय-भोग चाहते हैं वे भी विषय के अभाव में दुःख की अनुभूति करते हैं। उनका आनन्दास्वादन विषय भोग के द्वारा दुःख की निवृत्ति होना है और यह अनासक्त महापुरुष जो हैं वे आत्मसाक्षात्कार के बिना महान दुःख की अनुभूति करते हैं तो इनका आनन्दास्वादन है- आत्मसाक्षात्कार रूप दुःख की निवृत्ति। और भगवान का आनन्दास्वादन है-स्वाभाविक लीला। आनन्दास्वादन तो तीनों का है और तीनों के तीन भेद-उनका विषय भोग से, उनका आत्मरमण से और उनका स्वरूपानन्द वितरण से। परन्तु उसमें प्रयोजन क्या है? जीवों के आनन्दास्वाद का प्रयोजन है दुःख की निवृत्ति और भगवान के आनन्दास्वाद का प्रयोजन है लीला केवल।
लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’
श्रीभगवान के स्वरूपानन्द वितरण के समय पर विचार करने से यह मालूम होता है कि भगवान स्वरूपानन्द का वितरण कहाँ करते हैं? कहीं करते हैं, कहीं नहीं करते। जो आनन्द है किसी विषय में कहीं भी-वह आनन्द भगवान के आनन्द स्वरूप के अतिरिक्त कहीं और से आता है? विषय-भोग में भी जो आनन्द की अनुभूति है-वह आनन्द का श्रोत, आनन्द का मूल, आनन्द का भण्डार तो भगवान का स्वरूप ही है।
क्रमश:
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