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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

अब तो शत्रुघ्न पर वज्रपात हो गया। इसलिये कि आज ही बोले और बोलते ही काम बिगड़ गया। राम से अलग होने का आदेश मिल गया। अब बोल नहीं सकते। बड़ा पश्चात्ताप मन में किया कि जीवनभर कभी बोले नहीं और आज बोले तो फल मिल गया बोलते ही।

दास भक्त जो होता है वह मालिक के सामने बकवाद तो करता ही नहीं, मालिक को सलाह भी देनी होती है तो दूसरे के द्वारा दिलवाना चाहता है स्वयं नहीं बोलना चाहता। इसलिये जब लंका में विभीषण शरणागत होने आया तो भगवान ने सबकी सम्मति ली और सबने बड़ी सम्मति दी। हनुमान जी बोले नहीं और राम का निर्णय सुनकर प्रसन्न हो गये। ठीक निर्णय है - यह तो कह दिया पर अपनी सम्मति पहले नहीं की क्योंकि दास भक्त है। दास भक्त जो है वह परिचर्या, आज्ञापालन करता है। निरन्तर वह आज्ञापालनरूपी सेवा समुद्र में निमग्न रहता है। दूसरा कोई उसका हेतु नहीं है। सलाह देना भी सेवा है। आज्ञा देना भी सेवा है पर सब प्रकार की सेवाधिकार नहीं। परिचर्या कार्य है।

फिर जब कुछ भाव आगे बढ़े तो सख्यता पैदा होगी। सख्यता हुई तो समता आ गई। समता में सलाह भी देता है। अब सुग्रीव जी और हनुमान में क्या भेद? पर सुग्रीव को सखा कहते हैं भगवान। हनुमान को कभी सखा नहीं कहा, तात कहा, सुत कहा पर सखा नहीं कहा और हनुमान के गलें में कभी बाँह डालकर नहीं बैठे और कान के पास मुँह न लगाने दिया, न खुद लगाया। पर विभीषण और सुग्रीव इन दोनों के तो कान के पास मुँह करके बात करते। उनके कान के पास मुँह लगाकर बात सुनते। सुग्रीव के पास की झाँकी है बड़ी सुन्दर। वहाँ विभीषण के कान में मुँह लगाये कह रहे हैं और सुग्रीव से राय पूछते हैं, कहो कया करे? सखा! बोलो, तुम्हारी क्या राय है? सखा राय भी देते हैं। सम्मति भी देते हैं। बिना पूछे देते हैं और कभी रास्ता ठीक न हो तो हाथ पकड़कर हटा देते हैं कि इधर मत जाओ-
‘कुपथ निवारि सुपंथ चलावा’

यह सखा का धर्म है। यद्यपि सखा जीता है सखा के सुख-सम्पादन में। वहाँ भी अपना सुख नहीं है। जैसे दास का काम केवल मालिक की सेवा है। यही उसका जीवन है। इसी प्रकार सखा का मित्र का काम केवल सखा का ही सुख है। जो व्रज सखा हैं वह तो कुछ अजब हैं। व्रज सखा और व्रज के भगवान यह जो हैं यह खिलाड़ी हैं। तो कभी व्रज के सखा जब इनको गाली-वाली दें तब उनको आनन्द आता है। जब मान के रस में आनन्द न आवे, तो जरा दो-चार गाली सुन ले। कोई संकोच नहीं गाली-वाली देने में। हनुमान जी महाराज के कंधो पर राम-लक्ष्मण को बैठाकर के युद्ध किया, सब किया; पर भगवान के कन्धे पर हनुमान जी बैठे हों तो बताइये। और श्रीदाम भगवान श्यामसुन्दर को घोड़ा बनाकर चढ़ गया। भागवत की कथा है।

‘त्वाच भगवान श्रीकृष्णः श्रीदामानाम पराधीनः’
हार गये भगवान। होड़ हुई थी कि जो हारे सो घोड़ा बने। अब अगर भगवान भगवान बन जाये तो उनको हरावे कौन? भगवान भगवान बने रहें, अपनी भगवत्ता को लिये बैठे रहें। वैसे तो वैकुण्ठ में रहें फिर व्रज में आकर सखाओं के बीच में क्यों अवतीर्ण हुए? अपनी स्वयं सीमा में रहो वहाँ पर रात-दिन सुनते रहो।

व्रज में आये हैं तो व्रज में माँ-बाप भी हैं, सखा भी हैं। होड़ लगी कि जो हारे सो घोड़ा बने। श्यामसुन्दर हार गये। श्रीदाम ने कहा कि बनो घोड़ा। श्यामसुन्दर को घोड़ा बनाया और श्रीदाम चढ़कर सवार हो गये पीठ पर बोले-चल यहाँ से। ले गये उनको वंशीवटतक। श्रीदामा ने गये। यह अधिकार हनुमान को कहाँ है? सख्यता में जो समता है यह समता दास्य रति में नहीं है।

भगवान श्यामसुन्दर की गोष्ठलीला बड़ी मधुर लीला है। यहाँ भगवान बहुत फटकार सुनते सखाओं से। जैसे सुबल बोले-लाला! सो जा बहुत देर हो गयी, थक गये होगे और गोद में सुला लेता। सुबल ने कहा गोद में सो जा तो सिर रखकर सो गये। दूसरा आकर पेड़ का पत्ता लेकर हवा करने लगा। वहाँ कौन-सा बिजली का पंखा था। तीसरा पग दबाने लगा, सारे काम करें पर कहीं कृष्ण मालिकी लगाने लगे तो कान पकड़कर बाहर निकाल दें कि यह मालिक बनने आया है। सखा हो तो हम तुम्हारी सेवा भी करेंगे, खिलायेंगे भी, सब करेंगे, पंखा भी झल देंगे, मिट्टी भी झार देंगे पर कभी काम पड़े तो हमारी भी करनी पड़ेगी। सरल सखा हैं न! थक जाते हैं। तकलीफ में नहीं रहने देते लेकिन बराबरी का काम। यह सख्य रस में समता रहती है। सख्य रसमय जो भक्त हैं वे सख्य रसानुप्राणित चित्त से भगवान के प्रभुत्व को नहीं मानते। वहाँ तो बराबरी को मानते हैं।

अर्जुन ऐसे ही करता था। वह तो देखा कालरूप को तब डरकर बोला। नहीं तो वह ऐसे ही नहीं कहता - हे कृष्ण हे यादव हे सखेति, अपनी बात कह गया अर्जुन कि अरे, महाराज! मैं तो समझा नहीं था, आप ऐसे हैं। इतने बड़े हैं आप। मैं तो मानता था आप मेरे सखा ही हो। तो माफ करना ‘प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्’ अर्जुन बोले माफ कर दो मुझसे बड़ी भूल हुई। भगवान ने सोचा कि, यह तो सारा रस भंग ही हो गया। अरे! क्या कह रहे हो मित्र और फिर गले में हाथ डाल दिया।

सख्य रस में बराबरी का दावा है। वहाँ पर पैर पूजते हैं तो पैर पूजवाते भी हैं। कोई मन में भय नहीं, आशंका नहीं। ये भगवान हैं तो सखा भी हैं। परन्तु सखा दण्ड नहीं देते। सखा प्रेम का सख्यत्व का शासन करते हैं। पर यह शासन नहीं कि बच्चा कहीं बिगड़ गया तो ठीक नहीं। भगवान को हीन समझे अपने से यह बात सखा में नहीं आती। छोटा बच्चा है समझता क्या है अभी भोला है, निर्बुद्धि है। कहीं आग में हाथ डाल देगा, कहीं साँप को पकड़ लेगा, कहीं काँटे में जाकर गिर जायेगा, कोई बगुले की चोंच पकड़े तो बगुला चोंच मार देगा। यह मूर्ख है बच्चा है; अभी इसको होश क्या है?
क्रमश:

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