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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दास जो है वह फिर हमेशा पास रहता है। यह नहीं कि प्रजा की तरह अपना समय पर आवे और समय पर जाय। दास जो है उसकी नियुक्ति होती है खास काम के लिये। सेवक के अलग-अलग काम होते हैं। कोई सेवक बड़ा विश्वस्त होता है कि गुप्तकाम, खास काम राजा उसी से लिया करता है। सेवक का तारतम्य है। एक बात सेवक में होनी चाहिये वह बड़े काम की बात; सेवक में सेवा को छोड़कर अपने किसी काम की चिन्ता नहीं रहनी चाहिये। कोई इसीलिये शान्त हुए बिना-शान्त रस की प्राप्ति हुए बिना दास्य रस की प्राप्ति प्रायः नहीं कर सकता है।
क्यों? इसलिये कि उसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं। जिसका मन वश में नहीं, जिसको अपने भोग की लिप्सा, अपने आराम का ख्याल है और कहीं मालिक की सेवा करने में उसका अपना आराम कहीं कम पड़ता होगा तो सोचेगा क्या करें; तो ऐसी सेवा ठीक नहीं। अपना काम जब तक रहता है तब तक आदमी सेवक नहीं बन सकता। जहाँ अपना काम और मालिक का काम अड़ जाता है वहाँ सेवक का पता लगता है कि सेवक वास्तविक है कि नहीं। मेरे मालिक का काम सम्पन्न हो, मेरा काम चाहे उजड़े। एक पन्ना धाय रही। यह राजाओं के यहाँ दासी थी। उदय सिंह छोटा बच्चा था उसको मारने के लिये एक शत्रु तैयार। उस पन्ना धाय ने क्या किया कि उस बच्चे राजकुमार को तो भेद दिया अलग और अपने बच्चे को वहाँ रख दिया। उसके बच्चे को राजकुमार समझकर वह आकर मार गया। पन्ना धाय उस राजकुमार को लेकर चल दी और उसको बचा लिया। जहाँ अपना और मालिक का स्वार्थ अड़े वहाँ अपने स्वार्थ का विघात करके मालिक के स्वार्थ की रक्षा करे, वह सेवक है।भगवान के दास तो हनुमान जी हो सकते हैं। सब लोग नहीं हो सकते। जिनको अपनी चिन्ता ही नहीं अपने लिये कुछ करना है, कुछ खाना-पीना है, कुछ आराम करना है, नौकरी क्या मिलेगी? और इनाम क्या मिलेगा? और कहीं तारीफ ही मिल जाय। हनुमानजी को तारीफ तक सुनने की इच्छा नहीं और तो कोई बात ही नहीं। शान्त रति वाले से दास्य रति इसलिये ऊँची कि वह नजदीक पहुँच गया। मालिक उससे कह-कह करके काम कराता है। इसलिये शांत से दास्य रति ऊँची है। दास्य रति में क्या होता है-
अस अभिमान जाइ जनि भोरे।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे।
यह दास का अभिमान है कि ‘मैं सेवक और रघुपति पति मोरे’-यह मेरे स्वामी। अपने स्वामी का अभिमान अपना अभिमान नहीं। वे मेरे स्वामी है मुझसे काम लेते हैं। मुझको सेवा बताते हैं। मेरा कितना धन्यभाग है। वे ऐसे मालिक हैं जो मेरे हो गये हैं। मालिक में मेरे पन का भाव हो जाय और सेवा में ममता हो जाय। बस! सेवा के सिवाय और कोई काम नहीं। तो वह मालिक के नजदीक पहुँच गया। लेकिन नजदीक पहुँचने पर भी संकोच होता है।दास में और स्वामी में परस्पर समानता का व्यवहार नहीं होता है उसमें भेद रहता है। एक उदाहरण देते हैं कि सारी वस्तुओं का भोग भोग-जगत में एक-सा नहीं होता है। जैसे अन्न का भोग भोजन है, वस्त्र का भोग पहनना है, मुकुट का भोग सिर पर रखना है, जूते का भोग पैरों में उसे पहनना है, सभी भोग हैं, सभी आवश्यक हैं। अपने-अपने स्थान पर सभी का महत्त्व है। लेकिन उनके अलग-अलग भेद होते हैं।
इसी प्रकार सच्चिदानन्दघन विग्रह श्रीभगवान के भोग; हैं तो सब सेवा में ही पर सेवा कोई दास्य रति की, कोई सख्य की, कोई वात्सल्य की, कोई मुधर की होती है। इस प्रकार के उसके भेद होते हैं। सेवा के तारतम्य से भोग में भी तारतम्य आ जाता है। जो भगवान को बड़ा अपने को तुच्छ, भगवान को स्वामी अपने को सेवक, भगवान को आज्ञा देने वाला अपने को आज्ञा पालन करने वाला, भगवान की सेवा से ही अपने जीवन की सफलता मानने वाला, साधक है वह दास्य रति का भक्त है। उसे सेवा अधिकार तो प्राप्त हो गया इसलिये शान्त भक्त की अपेक्षा तो और आगे बढ़ गया, नजदीक आ गया। लेकिन वह आज्ञापालन परिचर्यादि के द्वारा भगवान की प्रीत-साधन करने के अतिरिक्त भगवान को कोई आज्ञा नहीं देता है कि आप यह काम यूँ करो। यह तो कहता ही नहीं और सलाह देने में हिचकता है कि मालिक को सलाह कैसे दें। अपनी बात को दूसरे के द्वारा कोई बहुत नजदीक का सेवक होता है तो उससे कहते हैं।रामचरितमानस में आता है कि - भरत जी को कोई बात कहनी होती तो हनुमान से कहते कि तुम जरा सरकार से कह देना हमारी बात क्योंकि मालिक के सामने बोलने में भी संकोच होता है। वाल्मीकि रामायण में आया कि शत्रुघ्न महाराज राम के सामने बोलना तो अलग रहा, राम से कुछ कह भी नहीं पाते और संकोच से अलग रहते। लक्ष्मण से भी नहीं बोलते। लक्ष्मण जी राम जी के साथ रहे थे और ये भरत जी की सेवा में रहे। भरत जी सगे भाई तो नहीं, पर भरत जी की सेवा में रहे तो कुछ कहना हो तो भरत जी से कह देते और यह मानते कि राम जी की सेवा का अधिकार तो अपने को है नहीं। भरत राम के प्रेमी और भरत की सेवा अगर मिलती रहे तो अपने निहाल हो जायं, इसी में रहे। जीवन भर कभी ये राम के सामने बोले नहीं और न तो माँग की, न तो आलोचना की, न राय ली और न राम ने पूछा ही। जरूरत क्या है पूछने की? भरत का सेवक है - हमारे सेवक का सेवक।
मथुरा में एक लवणासुर राक्षस था जो बड़ा उत्पाती था। राम के दरबार में शिकायत आयी, बात हुई। यह तय हुआ कि लवणासुर का दमन करना है। उस दिन शत्रुघ्न के मन में आ गयी कि सेवा सबको मिलती है जरा हमको भी कुछ मिल जाय। सोचे जरा कह दें तो बोले- तात दया हो आपकी तो यह लवणासुर वाला काम दास कर दे। राम जी बोले हाँ! हाँ। अवश्य करो। लवणासुर का दमन करो और वहीं पर राज्य करो।
क्रमश:
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