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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

भक्त के मानस भावों के भेद के अनुसार भक्ति के पाँच प्रकार होते हैं - शान्तरति, दास्यरति, सख्यरति, वात्सल्यरति और मधुररति। इन्हीं का नाम पाँच रस भी है - शान्त रस, दास्य रस, सख्य रस, वात्सल्य रस और मधुर रस। कृष्ण भक्ति में इन पाँच रसों की प्रधानता है। रस तो अनेक हैं। रस शास्त्र में एक जगह 28 रस माने हैं, एक जगह 16 रस माने हैं, एक जगह 11 माने, एक जगह 9 माने, एक जगह 6 माने, एक जगह 5 भेद माने हैं। यह रसों के भेद हैं। यह रस शास्त्र का अलग विषय है। यहाँ इसकी आवश्यकता नहीं।

यह पाँच प्रकार की रतियों को संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है। स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, मान, कीर्ति-यश, शरीर में इनमें से ममता रहित न होने पर इनमें से कोई भक्ति नहीं मिलती। इनकी ममता को तो छोड़ना पाँचों प्रकार की भक्तियों में आवश्यक है। जब यह सांसारिक तमाम वस्तुओं से ममता शून्य होकर पूर्ण कृष्ण-निष्ठा में होकर अपने इस नाम-रूप को खो देता है आदमी-‘आत्महरा होई तो जाने’ आत्महरा अर्थात अपने को खो देने वाला। अपने को खो देने वाला जब बन जाता है तभी लौकिक ममता रहित कृष्ण-निष्ठा होती है। उसका नाम शान्तरति है। इन्द्रियों का दमन, मन का दमन, दुराचार-सदाचार सर्वथा परित्याग, वैराग्य का उदय और भगवान में निष्ठा यह हो जाते हैं तो इसका नाम शान्ति रति है।

यहाँ कुछ दूसरी बात-टीकाकारों का अपना-अपना बड़ा सुन्दर भाव है। वह कहते हैं कि ज्ञानयोग की साधना में जब ब्रह्मभाव की अनुभूति होने लगती है तब भी स्त्री-पुत्र, वित्तादि में ममता नहीं रहती है और उनको भी शान्त भाव प्राप्त रहता है। उनके भी चित्त की अशान्ति दूर हो जाती है परन्तु उसमें और इसमें भेद यह है कि वे सर्वमूलस्वरूप परब्रह्म में अपने क्षुद्र अहम भाव को समर्पण करके ब्रह्मभूत होकर निर्विशेष आनन्द सागर में डूब जाते हैं। परन्तु उनका जो शान्त रस है बड़ा ऊँचा यह कृष्ण भक्त की भाँति कृष्णनिष्ठाजनित आनन्द देने वाला नहीं बनता है। आनन्द में डूब जाते हैं आनन्द भोगते नहीं हैं। कहते हैं कि ब्रह्मभूत और शान्त भक्त इन दोनों के तारतम्य का विचार करने पर यह अनुमान होता है कि ब्रह्मभूत ब्रह्मानन्दस्वरूपता को प्राप्त करके आनन्द सिन्धु में विलीन हो जाते हैं। शान्त रति के भक्त कृष्णनिष्ठता को अवलम्बन करके आनन्द-समुद्र में सुख से तैरते रहते हैं। इन्होंने भेद किया कि वो तो आनन्द समुद्र में डूबकर विलीन हो जाते हैं और ये आनन्द समुद्र में सुखपूर्वक तैरते रहते हैं। ‘ब्रह्मविद ब्रह्मणैव भवति’ और ‘रसंह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति’

इन दोनों श्रुति वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि जो ब्रह्मरूप सर्वात्मक सच्चिदानन्दरूप परतत्त्व का आस्वादन करते हैं वे सर्वात्मक परब्रह्म वस्तु में आत्मस्वरूप के द्वैत को डुबोकर सर्वात्मक वस्तु के स्वरूपान्तर्गत अपने को खो देते हैं। उनका अपना अलग अस्तित्व नहीं रह जाता। लेकिन जो सर्वात्मक वस्तु को रस-रूप से, प्रियतम रूप से, आस्वाद्य रूप से मेरा है इस ममत्व के भाव से ग्रहण कर सकते हैं वे सर्वात्मक सर्वप्रिय और सर्वविध ममतास्पद वस्तु के मूलस्वरूप सच्चिदानन्द का आस्वाद पाकर परमानन्द में अपने आपको मिलाये रहते हैं। ये आस्वाद्य पाते हैं और वो डूब जाते हैं। यह भेद है। इसलिये यह देखा जाता है कि ब्रह्मभूत और शान्त भक्त में यह अन्तर है कि वो ब्रह्मानन्द के स्वरूप हैं और ये ब्रह्मानन्द के भोक्ता हैं। वहाँ ब्रह्म मिल गया और यहाँ ब्रह्म इनका भोग हो गया। शान्त भक्तगणों में बस! केवल कृष्ण-निष्ठाजनित आनन्द का ही भोग होता है और कोई संसार के भोग की बात नहीं रहती है। लेकिन कृष्ण-निष्ठाजनित आनन्द का भोग होता है। कृष्ण सेवानन्द का आस्वादन यहाँ भी नहीं होता।

अब शान्त रसों की बात-शान्त रस में थोड़ी देर के लिये सर्वात्मक स्वरूप में डूब जाने की बात छोड़ दीजिये। शान्त रस में कृष्ण-निष्ठाजनित आनन्द का भोग होता है। सेवानन्द का नहीं होता। सेवानन्द में कुछ इस प्रकार की स्थिति होनी चाहिये कि जहाँ सेवक को सेव्य अपना सेवक मान ले। शान्त रस में निष्ठा श्रीकृष्ण में है। पर श्रीकृष्ण ने उनको सेवक नियुक्त नहीं किया है।

अब दास्य रति आयी। जैसे एक कोई महाराजा है किसी देश का और वह अपनी सारी प्रजा पर बहुत अधिक ममत्व रखता है और प्रजाजन भी उसको अपना उत्तम से उत्तम श्रेष्ठ पूज्य मानते हैं और उसकी सेवा करते हैं पर प्रत्यक्ष सेवा नहीं मानते हैं। प्रजा की भाँति सार्वजनिक सेवा मानते हैं। राजा भी उनको अपना मानता है और वे भी। उनको अपना मानने के नाते उनका अपनापन है। परन्तु उसमें कोई खास नजदीक की बात नहीं है। वह अनुकूल ही चलते हैं और वह उन पर कृपा भी करता है परन्तु यह नहीं कि उनसे कह दे कि एक गिलास पानी ले आओ। आज रात हमारे पलंग के पास बैठकर हवा करो। हमारी धोती धो दो। यह बात प्रजा से राजा नहीं कहता है। लेकिन राजा ने किसी को महल में नौकर रख लिया तो नौकर जिसको रखा वह आया प्रजा में से ही, तो प्रजा का जो भाव था वह भाव तो उसमें है ही। दूसरा नजदीक का भाव और हो गया कि वह खास सेवक भी हो गया। खास सेवक होने से वह कुछ और नजदीक आ गया तो उसमें सेवानन्द आस्वादन आरम्भ हो गया।

एक तो ममता का आनन्द और एक ममतास्पद वस्तु में भोग का आनन्द-इन दोनों में जरा भेद होता है। ऐसा देखा जाता है कि किसी आदमी को कोई धन-सम्पत्ति प्राप्त हो जाय, कोई पदार्थ प्राप्त हो जाय तो उसमें उसकी मेरेपन की बुद्धि हो जाती है। यह मेरा है। इतना आनन्द तो उसे मिल गया। कोई भूखा आदमी था और उसको मिठाई की थाली मिल गयी। यह आनन्द तो हो गया पर जब वह उसको खायेगा तब विशेष आनन्द और आयेगा। एक ममतास्पद वस्तु का आनन्द है और दूसरा ममतास्पद वस्तु के भोग का आनन्द है।शान्त रस में ममतास्पद वस्तु का आनन्द है और दास्य रति में ममतास्पद वस्तु के भोग का आनन्द आरम्भ हो जाता है।
क्रमश:

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