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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

इस भगवान के रमण के अधिकारी कौन है? इसके अधिकारी श्रीगोपीजन है। यहाँ तक की संक्षेप में बात हो चुकी है।अब कहते हैं कि इसी का नाम शुद्ध भक्ति है और इसी का नाम निर्गुणा भक्ति है। जैसे गंगा की धारा निरन्तर समुद्र की ओर सारी विघ्न बाधाओं को हटाती हुई चली जा रही है; इसी प्रकार जिसके मन की गति अविछिन्न भाव से निरन्तर भगवान की ओर बहती रहे उसका नाम निर्गुणा भक्ति है।

लक्षण भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम्।
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे।

तो ऐसे भक्तों की क्या चाह होती है?

सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत।
दीयमानं न गृह्णन्ति बिना मत्सेवनं जनाः।

भगवान कहते हैं कि मेरी सेवा को छोड़कर ऐसे भक्त जो हैं वे पाँच प्रकार की मुक्तियाँ दी जाने पर भी स्वीकार नहीं करते। ये हैं प्रेमी भक्त। इसका यह अर्थ मानना चाहिये कि वह अमुक्त नहीं है। सेवा से अलग रहकर वे किसी और मुक्ति को नहीं चाहते। लेकिन वे जगत के बन्धन में हैं, सो बात नहीं। जगत का, विषयों का, ममता का, आसक्ति का कोई बन्धन उनके जीवन में रह गया है, ऐसा नहीं। वे समस्त बन्धनों से सर्वथा विमुक्त हैं। तभी वह भगवान के प्रेमी हैं। तो कहते हैं कि भगवान की अपार कृपा से जब कभी किसी अनिर्वचनीय सौभाग्यवश जिनको यह शुद्ध भक्ति की प्राप्ति होती है वे ही अपनी सारी ममता भगवान को समर्पित कर सकते हैं। नहीं तो कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी चीज में ममता रख लेते हैं। शुद्ध भक्ति की जो परिणिता अवस्था है, उसका नाम है प्रेम। ऐसे साधक जो शुद्ध भक्ति के परिणिता अवस्था में पहुँचे हुए हैं वे अपनी-अपनी भावनानुसार भगवत सेवा पाकर के कृतार्थ होते हैं। चैतन्य महाप्रभु के ये उद्गार हैं-

शुद्धभक्ति हैते हय प्रेमेर उत्पन्न।
अतएव शुद्ध भक्तिर कहिये लक्षण।
शुद्ध भक्ति से ही विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती है। इसलिये शुद्ध भक्ति के लक्षण में संक्षेप में जान लेने चाहिये।

अन्यवांक्षा अन्यपूजा छाड़ि ज्ञानकर्म।
आनुकूल्ये सर्वेन्द्रिये कृष्णानुशीलन।
एइ शुद्धभक्ति, इहा हैते प्रेम हय।

चैतन्य शुद्ध भक्ति का लक्षण बताया। शुद्ध भक्ति जो है ये प्रेम को उत्पन्न करती है और प्रेम से उत्पन्न है। शुद्ध भक्ति का लक्षण बहुत संक्षेप में और बहुत सार रूप में यह है कि दूसरी आकांक्षा-प्रेम के अतिरिक्त होती नहीं और कोई आकांक्षा अर्थात प्रेमास्पद को प्राप्त करने की आकांक्षा भी नहीं। प्रेमास्पद को प्राप्त करना बड़ा प्रिय और उसमें बड़ा सुख परन्तु प्रेमास्पद के सुख की वांछा है। प्रेमास्पद को प्राप्त करने की वांछा नहीं। इसी का नाम प्रेम है। प्रेमास्पद यदि प्राप्त नहीं होना चाहते, नहीं मिलना चाहते तो प्रेम कहेगा कि प्रेमास्पद के मिलने की इच्छा छोड़ दो। अन्य वांछा-प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की वांछा का परित्याग करे और अन्य पूजा का परित्याग-प्रेम के सिवाय अन्य किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, वस्तु, भावना, कल्पना, किसी की भी पूजा न करे। प्रेम का पुजारी जो भी कोई हो-प्रेम की वांछा, प्रेम का पूजक और ज्ञानकर्म से विलग हो, उनका परित्याग करे। अन्य वांछा का परित्याग, अन्य पूजा का परित्याग और ज्ञानकर्म का परित्याग हो। तो क्या करे?-जो उनको अनुकूल लगे इस प्रकार की सेवा सर्वेन्द्रिय के द्वारा करे। मन-बुद्धि यह सब सवेन्द्रिय में ही हैं। सर्वेन्दिय के द्वारा श्रीकृष्ण की सेवा करें उनकी अनुकूलता के अनुसार-अपनी अनुकूलता के अनुसार नहीं। इसका नाम शुद्ध भक्ति है। इससे प्रेम का उदय होता है। इसके पहले नारद पाञ्चरात्र का एक वाक्य उद्धृत किया जाय-

‘अनन्य ममता विष्णो ममता प्रेमसंगता’ इससे यह सिद्ध हुआ कि स्त्री-पुत्र वित्तादि में ममता रहित होकर श्रीकृष्णनिष्ट ममता ही प्रेम नाम से अभिहित है। अर्थात संसार के लोक-परलोक की किसी वस्तु में ममता न रहे और ममता रहे केवल कृष्णनिष्ठ होकर। इस प्रकार की कृष्णनिष्ठ ममता का ही नाम प्रेम है। यह भगवान के लीला गुणादि को सुन-सुनकर अपने आप प्राप्त होती है। जब यह अवस्था प्राप्त हो जाय तो उसका नाम निर्गुणा भक्ति है। इसका नाम शुद्धा भक्ति है। यह निर्गुणा भक्ति है - इसमें किसी गुण की दृष्टि नहीं है। प्रेम के लिये कहा है - ‘गुणरहितं कामनारहितं अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपं प्रतिक्षण वर्धमानम्’ यह छः प्रेम के लक्षण कहे हैं।

उसमें सबसे पहला लक्षण है ‘गुणरहितं।’ प्रेमास्पद के गुणजनित प्रेम का अभाव और सांसारिक-तीन प्रकार के गुणों में से किसी गुण को लेकर होने वाली भक्ति यह नहीं है। उसमें क्या होगा कि भगवान की पूर्ण ममता की प्राप्ति होगी और तभी प्रेम के रस की उत्पत्ति होगी।भक्ति के तीन प्रकार माने हैं, वैसे तो उनके अनेक भेद हैं-

साधन भक्ति
सिद्धा भक्ति
शुद्ध भक्ति।
जिन आचरणों के द्वारा भक्ति की प्राप्ति हो वह साधन-भक्ति, जिन भक्ति साधनों के द्वारा भगवान की भक्ति में निष्ठा हो जाय उसका नाम सिद्ध भक्ति और जो भक्ति केवल प्रेम मूलक हो रागात्मिका या रागानुगा हो उसका नाम शुद्ध भक्ति।

इसलिये साधन भक्ति से जब रति का उदय होता है, तब तो सिद्ध भक्ति होती है और रति जब प्रगाढ़ होती है उसका नाम प्रेम होता है और वही शुद्ध भक्ति है।

साधन-भक्ति हैते रतिर उदय।
रति गाढ़ हैले तार प्रेम नाम कह।
साधन भक्ति के द्वारा रति की उत्पत्ति होती है और रति के प्रगाढ़ होने पर उसका नाम प्रेम होता है। तो दूसरी वांछा, दूसरी पूजा, ज्ञान, कर्म इत्यादि का परित्याग करके केवल भगवान की प्रीति के लिये कीर्तनादि भक्त्यांग साधनों के द्वारा स्त्री-पुत्र-परिजन, धन, यश, कीर्ति, लोक-परलोक, विषय-वैभव इत्यादि में रहने वाली ममता को सर्वथा छोड़कर भगवान में पूर्ण ममता प्राप्त करने की इच्छा और चेष्टा हो। इस प्रकार करते-करते जब अन्य निरपेक्ष कृष्ण निष्ठ ममता हो जाय अर्थात अन्य कहीं पर तो ममता रहे नहीं और सारी ममता श्रीकृष्ण में ही जाकर केन्द्रित हो जाय; इसका नाम प्रेम, इसका नाम शुद्धा भक्ति। लेकिन शुद्धा भक्ति के भी भेद होते हैं। शुद्धा भक्ति में भी ममता के तारतम्य को लेकर, ममता के विशेषत्व को लेकर, यह एक ही प्रेम विभिन्न भक्तों के हृदयों में विभिन्न मूर्ति धारण करके विभिन्न नाम और भावों से युक्त होकर विहरित होते हैं।
क्रमश:

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