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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

शंकराचार्य जी की समालोचना से मालूम होता है कि भगवान के कार्य में कोई न कोई प्रयोजन तो है परन्तु वह प्रयोजन है क्या, यह जानना है बड़ा कठिन; क्योंकि आप्तकाम में प्रयोजन हो नहीं सकता और प्रयोजन के बिना प्रवृत्ति होती नहीं। यह शास्त्रार्थ की चीज है। प्रयोजन तो आप्तकाम में सम्भव नहीं और प्रयोजन के बिना प्रवृत्ति सम्भव नहीं। तो क्या बात है?

वेदान्त दर्शन के द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ इस सूत्र की व्याख्या में भगवान शंकराचार्य ने रामानुजाचार्य ने, मध्वाचार्य ने सभी ने अपना-अपना मत प्रकट किया। उसमें शंकराचार्य का यह मत है ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ में कि जो कोई राजा या उच्च पदस्थ राज्याधिकारी कोई प्रयोजन न होने पर भी क्रीडा-विहारादि करते हैं, खेल करते हैं बाह्य प्रयोजन न दीखने पर भी और स्वभावतः ही सबके श्वास पर श्वास आता है। इसी प्रकार भगवान में भी प्रयोजन न होने पर भी स्वभावतः ही लीला से जगत की सृष्टि वे किया करते हैं। तो उसमें यदि कोई यह समझे कि उनके मन में क्रीडादि का प्रयोजन तो है ही। सुखापेक्षा है। तो कहते हैं कि भगवान अनन्त लीलामय हैं। उनमें कोई आत्म सुख या सुखापेक्षा हो नहीं सकती। वे आप्तकाम हैं तो प्रयोजन न होने पर भी वे उन्मत्त नहीं हैं, खेल करते हैं। ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ और ‘स इमाँल्लोकान् सृजत’ यह सर्वज्ञ, सर्वविद है।

इससे यह जाना जाता है कि वे सर्वज्ञ होते हुए भी प्राकृत-अप्राकृत सब वस्तुओं के ज्ञाता होते हुए भी उनका कार्य उन्मत्त का कार्य नहीं है। यह लीला है। इसी प्रकार इन्होंने लीला बताया। किसी ने इसको मत्त का नृत्य बताया। किसी ने उन्मत्तता बताया। किसी ने और कोई चीज बतायी। महाराजाओं की क्रीडा बतायी। इस प्रकार अलग-अलग लोगों ने अपनी-अपनी विचार धारा को प्रकट किया। तो बोले भई! यह क्या बात है? जब तब कहा-भगवान के लिये कोई उदाहरण मिलता ही नहीं। और जितने भी उदाहरण होते हैं, दृष्टान्त होते हैं - ये एकमुखी या एकपक्षीय होते हैं। चाँद के समान मुँह है का अर्थ यह नहीं कि चन्द्रमा ही उसके मुँह पर आ गया है।इसी प्रकार से जितने भी दृष्टान्त या उदाहरण होते हैं ये सर्वतोमुखी नहीं होते। भगवान में दृष्टान्त घटता ही नहीं। भगवान में दोनों बातें आती हैं कि जन्म रहित होते हुए भी जन्म लेते हैं-

‘अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्’
और-

न तेऽभवस्मेश भवस्य कारणं विना विनोदं बत तर्कयामहे।
हे भगवन! आप स्वभावतः जन्म रहित होने पर भी युग-युग में जन्म लेते हैं। यह लीला के सिवाय और कुछ नहीं है। यह भगवान की लीला है।

‘भगवान ने रमण करने की इच्छा की’ रासपञ्चाध्यायी के इस प्रथम श्लोक पर विचार करने पर भगवान का रमण क्या है? उसका उद्देश्य क्या है? इस सम्बन्ध में यह बात हुई कि भगवान का उद्देश्य है - स्वरूपानन्द का वितरण। यह रमण है, यह रसास्वादन भगवान का अपने स्वरूप का लोगों में वितरण करना। अपने स्वरूपानन्द को बाँटना। तो रमण के तीन अर्थ हुए-सांसारिक विलासादि - यह विषयासक्तों का रमण और आत्मारामात-आत्मा में रमण, यह मुमुक्षु महात्मा पुरुषों का रमण तथा अपने स्वरूप के आनन्द का वितरण करना-यह भगवान का रमण। इसलिये भगवान ने रमण किया। यह न लौकिक काम है और न आत्मारामों का रमण है। यह भगवान का रमण है।

भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।
पहली बात है कि श्लोक का जो पहला शब्द है ‘भगवान’-उस पर संक्षेप में जो बात हुई थी उसको समझ लें। यह भगवान का रमण है। भगवान कौन? जो छः प्रकार के महान ऐश्वर्य से सम्पन्न। उनमें अनन्त ज्ञान है, अनन्त वैराग्य है, अनन्त ऐश्वर्य है, अनन्त श्री है, अनन्त वीर्य है, अनन्त कीर्ति है, अनन्त यश है। इस प्रकार के भगवान जिनको किसी चीज की इच्छा नहीं और अगर इच्छा हो तो इन चीजों को अपने-आप प्रकट कर लें, बना लें। दूसरे के द्वारा उनको सुख प्राप्त करने की न इच्छा है और न आवश्यकता। उसकी व्याख्या हुई कि वे छः ऐश्वर्य कौन से हैं, कितने हैं, कैसे हैं?

दूसरा शब्द है रमण। रमण का अर्थ, किया गया आनन्दास्वादन-आनन्द का आस्वादन। आनन्दास्वादन के तीन भेद किये गये-विषयी लोगों का आनन्दस्वादन, आत्माराम मुनियों का आनन्दास्वादन और भगवान का आनन्दास्वादन। इसमें जो आनन्दांश है यह तीनों में ही भगवान का है। क्योंकि आनन्द भगवान में ही है और कहीं आनन्द है ही नहीं। लेकिन विषय रस में जो आनन्द है वह आनन्द भी भगवान का है पर विषयासक्त लोग क्या करते हैं कि जैसे कोई आदमी थोड़ी-सी मिश्री के साथ बहुत-सा नीम चूर्ण मिला ले। रस के साथ कोई गन्दी चीज मिला ले। इस प्रकार विषयासक्त पुरुषों का जो रसास्वादन है-विषयास्वादन यह भगवान में हो नहीं सकता। दूसरी चीज है मुमुक्षु लोगों का, ज्ञानियों का जिनका अन्तःकरण परम विशुद्ध है, उन महात्माओं का आनन्दास्वादन। वह आनन्दास्वादन है आत्मरमण। यहाँ रमण में पहला जो है वह विषय सेवनरूपी रमण है - आनन्दास्वादन और ज्ञानियों का है आत्मरमण-आत्मा में ही नित्य रमते हैं। यह इनका रमण है। भगवान जो हैं वह आनन्द के सागर हैं, आनन्द की निधि हैं, आनन्द के उद्गम स्थान हैं। इसलिये आत्माराम लोगों को जो सुख है आत्मरमण का उसकी इनको आवश्यकता नहीं-वह इनका स्वरूप ही है। विषयानन्द इनके पास आ ही नहीं सकता। इनका आनन्दास्वादन है-स्वरूपानन्द वितरण-अपने स्वरूप के आनन्द को लोगों में बाँटना।

विषयास्वादन विषयी लोगों का, भोगी लोगों का संसार में आसक्त, गड्ढे में पड़े लोग हैं इनका आनन्दास्वादन है। आत्मरमण शान्त हृदय मुनियों का आनन्दास्वादन है। यह विशुद्ध ज्ञान मार्ग में जो महात्मा पुरुष हैं उनका है और प्रेमियों का है। यह आनन्दास्वादन कैसा है? भगवान का आनन्द का वितरण ही आनन्दास्वादन है। भगवान अपने प्रेमियों के योग्य बनते हैं। कोई उनको माता मान करके माता का सुख भोगता है, पिता मान करके कोई पिता का सुख भोगता है। कोई उनको मालिक मानकर मालिक का सुख भोगता है। कोई मित्र मानकर मित्र का सुख भोगता है। इस प्रकार से भगवान अपने आनन्द का वितरण करते हुए अपने प्रेमियों के आनन्द में आनन्द का रस लेते हैं। यह प्रेम वितरण के द्वारा आनन्द का आस्वादन करना ही भगवान का रमण है।
क्रमश:

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