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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
बहिर्दृष्टिपरायण जो जीव हैं वे विषयों के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर आनन्द का आस्वादन करते हैं। इसलिये उनको इन्द्रिया राम कहा, विषया राम कहा। किन्तु एक बात समझने की है कि विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध होने पर आनन्द की अनुभूति क्यों होती है? बड़ा शास्त्रीय विषय है। तैत्तिरीय उपनिषद में आया-
‘आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्’
आनन्द वस्तु को ब्रह्म जानना चाहिये अर्थात, ब्रह्म आनन्द स्वरूप है
तथा ‘को ह्येवान्यात्कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्’
इस तैत्तिरीय उपनिषद के मंत्र द्वारा यह आता है कि यदि आकाशवत अपरिमित आनन्द न होता तो जगत के जीव किस वस्तु को लेकर जीवन धारण करते। अतः यह एक बात देखी जाती है कि सर्वव्यापी परमानन्दस्वरूप ब्रह्म रूप रसादि समस्त विषयों में अवस्थित हैं और बहिर्मुखी लोग जो हैं वे मूल ब्रह्म वस्तु को न देखकर रूप रसादि विषयों में भावना करके स्वरूपानन्द को भूलकर विषयानन्द में रम जाते हैं। इसलिये वो वहाँ आनन्द मानते हैं, ब्रह्म का नहीं विषयों का। वहाँ बात भी क्या है जैसे शहद का- मधु का भरा हुआ कोई पात्र हो और उसमें से झरकर मधु धूल में गिरे और उस मधुकण के साथ उसका आस्वादन करे तो धूल साथ आ जाय। धूल भी चाटने लगे मधु के साथ तो मिष्ठता तो है मधु की पर यह धूल चाटते हैं।
यह प्रश्न इसलिये उठा कि भगवान आनन्दमय हैं। भगवान का ही आनन्द विषयों में आता है। भगवान का आनन्द ही जगत में सब जगह फैला है। फिर यह जो विषयों में आनन्द भगवान देते हैं यह क्या कोई दूसरा आनन्द है या और कहीं से उधार लेकर देते हैं। एक और उदाहरण देते हैं जैसे - गधा जो होता है उसकी प्यास मिटाने के लिये स्वच्छ सरोवर का ही स्वच्छ जल दिया जाता है। गधा क्या करता है कि अपने स्वभाववश उसमें कीचड़ मिलाकर पीता है तो वह गधे का कीचड़ मिलाया हुआ पानी देखकर कोई यह कहे कि गधे को स्वच्छ सरोवर का पानी न देकर कहीं और से लाकर दिया गया यह बात ठीक नहीं। यह भ्रांत धारणा है।इसी प्रकार जगत के जीवों को जो दुःख मिश्रित आनन्द मिलता है यह उनकी अपनी भूल के कारण से ही मिलता है परन्तु जो आनन्द है वह परब्रह्म के स्वरूपानन्द से पृथक वस्तु नहीं; आनन्द एक ही चीज है। जीवगण अनादिजन्मसंचित बहिर्मुखता के वश में होकर इस परमानन्द को ही विषयमिश्रित करके भोग बना लेते हैं तो वह दुःख युक्त हो जाता है। ‘एष ह्येवानन्दयाति’ इत्यादि श्रुतियों से प्रतिपादित जो भगवान परब्रह्म हैं उन्हीं का आनन्द-सर्वत्र है।
इस प्रकार से विज्ञानादि, ब्रह्मा, श्रुति प्रतिपादित परब्रह्म विज्ञान स्वरूप होकर भी आनन्दस्वरूप होकर भी आनन्दस्वरूप होकर भी आनन्ददाता है। ‘रस ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति’ इत्यादि श्रुति वाक्यों से जाना जाता है जीव यदि रसस्वरूप परब्रह्म के स्वरूपानन्द को ग्रहण कर लें तो आनन्दी हो जाते हैं अर्थात आनन्द का आस्वादन कर सकते हैं।अतएव परब्रह्म का स्वरूपानन्द ग्रहण ही जीवों का आनन्दास्वादन है। इस तरह से रासलीला स्वरूपानन्द वितरण है। परब्रह्म का आनन्द-स्वादन है। माने आत्माराम मुनियों का जो आनन्दास्वादन है वह तो है इसलिये कि उनको उस आनन्द की इच्छा है। लेकिन भगवान जो हैं ये तो नित्य आनन्दमय हैं। भगवान में आनन्द की इच्छा नहीं घट सकती। जो सारे आनन्द के मूल केन्द्र हैं, जिनके रसस्वरूप को ग्रहण करके ही सब आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं, जिनका आनन्द ही जीव-जगत को आनन्द दान देता है वो सर्वविध आनन्द के मूल केन्द्र हैं। जगत के जीव जिनको पाने के लिये व्यग्र हैं। वह समस्त आनन्दों के मूलकेन्द्र-स्वरूप भगवान किसी प्रयोजन से आनन्दभोग करने की इच्छा करे, यह नहीं हो सकता। आत्माराम मुनियों का जो आत्माराम रसास्वादन है-आनन्दास्वादन यह भी इनमें नहीं है। तो क्या है? स्वरूपानन्द को प्राप्त करके जैसे आत्माराम मुनिगण आनन्द का रसास्वादन करते हैं तो यह स्वरूपानन्द का प्राप्त करना क्या है? इनका स्वरूपानन्द वितरण है। भगवान जो स्वरूपानन्द का वितरण करते हैं यही यहाँ पर भगवान का रमण है।
यहाँ फिर शंका उठी कि भई! परब्रह्म जो है निर्विशेष हैं। परमानन्द स्वरूप हैं - इनमें प्रयोजन बुद्धि क्यों आयी। आनन्द-वितरण करने की बात भी एक प्रयोजन है। शास्त्र सम्मत है यह। बात ठीक है - निर्विशेष निष्प्रयोजन प्रवृत्तिहीन परब्रह्म में भी। शास्त्र श्रुतियाँ कहती हैं कि उनमें भी प्रवृत्ति होती है। कैसे? तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ आदि श्रुति वाक्यों से यह जाना जाता है कि सृष्टि के पूर्व त्रिगुणमयी प्रवृत्ति को उन्होंने वीक्ष्ण किया और अपने को बहुत से रूपों में प्रकाशित किया। यह प्रवृत्ति हुई न। ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ श्रुतिवाक्यों से जाना जाता है कि यह सर्वकार्यकारण ब्रह्म ही परिदृश्यमान सारे संसार की सृष्टि करते हैं और अन्तर्यामी रूप में उसमें प्रवेश करते हैं। तो अवश्य ही इनकी प्रवृत्ति है और प्रवृत्ति है तो कोई प्रयोजन है। यह दूसरी बात है कि इनका प्रयोजन तुच्छ नहीं है। उनका प्रयोजन सहेतुक नहीं है पर प्रयोजन अवश्य है। यह प्रयोजन क्या है?
यहाँ एक सूत्र है वेदान्त दर्शन का ‘न प्रयोजनवत्त्वात्’ शास्त्रार्थ है। यह थोड़ा कठिन विषय है। इसका अर्थ भाष्यकार करते हैं। इस सूत्र के भाष्य में शंकराचार्य लिखते हैं - जगत में देखा जाता है कि चेतन और बुद्धिपूर्वक काम करने वाला कोई भी आदमी सामान्य कार्य में भी यदि रत होता है तो उसकी अपने प्रयोजन के अनुरूप प्रवृत्ति होती है और बड़े काम में हस्तक्षेप जब करना होता है तब विशेष रूप से आत्म-प्रवर्तन-उसके अनुसार प्रवृत्ति होती है। यह कहना पड़ता है।तब भगवान ने इस विशाल ब्रह्माण्ड और उसमें छोटे-बड़े असंख्य जीव और उनके अच्छे-बुरे भोग्य पदार्थ इनकी सृष्टि की। गुरुतर कार्य भगवान का है। तो जगत की सृष्टि की प्रवृत्ति में क्या भगवान का कोई प्रयोजन नहीं। यदि कोई प्रयोजन नहीं तो सृष्टि की रचना की क्यों? और प्रयोजन यदि माना जाय तो भगवान नित्य-चैतन्य, नित्य-निरंजन हैं यह वाक्य ठीक नहीं बैठता। और कोई अगर यह सोचना है कि यह उन्मत्त का काम है; पागल ने ऐसा काम कर दिया किसी प्रयोजन के न होने पर भी उन्मत्त की भाँति-यह बात भी नहीं ठीक है। क्यों? ‘यः सर्वज्ञः सर्वविद’ भगवान उन्मत्त हैं नहीं, सर्वज्ञ हैं, उनको कोई प्रयोजन है नहीं। तो क्या बात है?
क्रमश:
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