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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
यहाँ पर भगवान का परिपूर्ण ऐश्वर्य भी प्रकट है और फिर भगवान ने प्रेमवती गोपरमणियों को आमंत्रित किया, वेणुवादन करके और वह मुरली-ध्वनि चौरासी कोस व्रजमण्डल में परिपूर्ण हो गयी। किन्तु सुना केवल उन प्रेमवती व्रज गोपियों ने जिनको बुलाया था। इससे भगवान की अचिन्त्य महाशक्ति का परिचय मिलता है। गोपरमणियों के साथ भगवान की रमणमयी रासलीला यह भक्त वात्सल्य और प्रेमाधीनता रूप अनन्य असाधारण यश की ही अभिव्यक्ति करने वाली है।सर्वसाधारण लोग इसको नहीं समझते। भागवत में आया है कि जब शत्कोटि रमणियों से घिरे हुए भगवान रासमण्डल में अवतीर्ण हुए तब-‘जगुर्गन्धर्वपतयः सस्त्रीकास्तद्यशोऽमलम्’ तुम्बुरु आदि संगीताचार्य, देव, गन्धर्व गगन मार्ग से आकर के अपनी-अपनी पत्नियों सहित भगवान के भक्त वात्सल्य और प्रेमाधीनता रूप गुण का, यश का गान करने लगे। इसके अतिरिक्त रासोल्लास तंत्र आदि में भगवान की रासक्रीडा में भगवान की उपासना पद्धति का बड़ा उत्तमोत्तम श्रेष्ठ वर्णन है। इससे भी जाना जाता है कि यह जो भगवान की लीला है वह यश-विस्तार करने वाली है। यश को मिटाने वाली नहीं। भगवान ने गोपर मणियों के साथ जब रमण की इच्छा की, जब वहाँ पर रासमण्डल में भगवान पधारे उस समय शोभा और सम्पत्ति जिसे ‘श्री’ कहते हैं इसका जितना प्राकट्य हुआ उतना और कहीं नहीं हुआ। गोपर मणियों के इस रमण के समय भगवान के अंग-शोभा का वर्णन करते हैं कि-
‘त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्’
उर्ध्व, मध्य और अध तीनों लोकों में जितना सौन्दर्य है वह सारा सौन्दर्य उस समय भगवान के श्रीविग्रह में प्रकट हो गया।
तत्रातिशुशुभे ताभिर्भगवान् देवकीसुतः।
मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा।
कहते हैं कि गोपीमण्डल मंडप में भगवान की जो आत्यन्तिक शोभा है उसका वर्णन नहीं हो सकता। तीनों जगत में इसकी कहीं उपमा ही नहीं है। तथापि दिग्दर्शन के लिये यह कहा जा सकता है कि अगणित हेममणियों से जड़ित यह दिव्यातिदिव्य मरकत मणि है। इस लीला की सम्पत्ति-श्री की बात क्या कही जाय। जब भगवान इस विहार में प्रवृत्त हुये उस समय सभी छः ऋतुयें एक साथ आविर्भूत होकर लीलामय की सेवा में लग गयीं। देवताओं ने पुष्प वृष्टि आरम्भ कर दी। गन्धर्वो ने गीत-वाद्यादि आरम्भ कर दिया और तमाम जगत में जहाँ-जहाँ पर इसका भान हुआ आनन्द छा गया। भगवान के लिये इस विस्तार से तो यमुना पुलिन पर अनन्य असाधारण शोभा फैल गयी। इस लीला में भगवान की सर्वज्ञता सर्वप्रकाशिता आदि ज्ञानशक्तियों को भी अनुपम विकास देखा गया और इस लीला में समस्त गोपियों के हृदयों का भाव भी भगवान ने समझ लिया।
कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः’
जितनी गोपियाँ रासस्थली में थीं भगवान ने अपनी उतनी मूर्तियाँ बना ली। भगवान की इस लीला में उनकी सर्वज्ञता का आत्मप्रकाश हुआ। फिर भगवान ने इस लीला में वैराग्य-शक्ति का प्रकाश किया-
‘सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः
इन श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि शत-शत कोटि गोपिरमणियों के साथ रमण में प्रवृत्त होकर सूरत सम्बन्धी हाव-भाव का प्रकाश किये बिना ही भगवान ने सबकी मनोवासना पूर्ण कर दी। इस लीला में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कितने भावों से कितने प्रकार से अपने ऐश्वर्य वीर्यादि छः शक्तियों का विकास करने वाले बने, इसकी कोई सीमा नहीं। यहाँ केवल दिग्दर्शन मात्र कराया गया है।
भगवान की अपार कृपा से इस परम मधुर-लीला पर विचार करने पर यह बात मालूम हुई कि ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्ति सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण अपनी महाशक्तियों का पूर्ण विकास करके ही रमण की इच्छा करने वाले बने। माने इस महाशक्तियों का पूर्ण विकास करते हुए यह लीला ही। इसलिये यह लौकिक लीला है ही नहीं! है ही नहीं!! किन्तु इस आलोचना में पूरी बात आयी नहीं। लौकिक विलास नहीं है यह बात ठीक है लेकिन भगवान का रमण क्या है; यह बात नहीं आयी। भगवान ने किस लिये इन छः महाशक्तियों का पूर्ण विकास करके यह लीला की? इस रमण का वास्तविक स्परूप क्या है? भगवान आत्माराम हैं, पूर्णकाम हैं, आनन्दस्वरूप हैं तो किस प्रयोजन की सिद्धि के लिये इन्होंने रमण की इच्छा की? प्रयोजन क्या था? वे आत्माराम हैं आप्तकाम हैं। तो यह बिना समझे भगवान के रमण की इच्छा का पूरा अर्थ ध्यान में नहीं आ सकता। इस पर विचार करते हैं। यह रमण शब्द जो है यह क्रीडा वाचक रम धातु से निष्पन्न है और इस शब्द के सुनने मात्र से ही जो बिना विचार के अर्थ करते हैं, वे केवल स्त्री विलास अर्थ ही इसको समझते हैं। तो रमण शब्द का यह अर्थ नहीं होता सो बात नहीं। पद्मपुराण में आया है भगवान राम के नाम का अर्थ करते समय-
रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि।
इति रामपदे नासौ परं ब्रह्माभिधीयते।
योगीगण जिस अपरिछिन्न सच्चिदानन्दमय तत्त्व में रमण करते हैं; राम शब्द उस परब्रह्म भगवान का सूचक है। तो योगियों के सच्चिदानन्दघन में रमण की कोई कामक्रीडा कह सकता है क्या? यह बन नहीं सकता फिर यहाँ रासलीला में ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्’ भगवान ने आत्माराम होकर रमण किया यह उक्ति है। भागवत में श्रीशुकदेवजी आदि के लिये आता है कि आत्माराम हैं। अब शुकेदेवादि के आत्माराम शब्द को कोई यह कहे कि इसका अर्थ यहाँ काम-क्रीड़ा है - शुकदेवादि के लिये तो यह चीज कभी बनती नहीं। आत्मा में रमण करते हैं, इसका अर्थ जो काम-क्रीडा करते हैं सो नहीं होता है। यह सब लोग जानते हैं।
अतएव भगवान ने रमण की इच्छा की-इस पर विचार करने की आवश्यकता है। ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्’ ‘आत्मारामाश्च मुनयः’ रामः इत्यादि रमण शब्द है। इन सारे शब्दों पर विचार करने पर मालूम होता है कि रमण शब्द का अर्थ कामक्रीडा में भी व्यवहार होता है और आत्मरामादि पदों में जहाँ आता है वहाँ काम-क्रीड़ा बिल्कुल नहीं है। रमण का हम यह अर्थ कर लें- आनन्दास्वादन। यह अर्थ कर लें तो ठीक बैठ जाता है। भोगजनित आनन्दास्वादन-कामक्रीडा यह विषयासक्त जीवों का रमण और आत्मस्वरूपानन्दास्वादन यह आत्माराम का और विषय सम्बन्धविहीन मुक्त जीवों का रमण-आनन्दास्वादन। इसलिये यह कह देते हैं कि भगवान ने रमण की इच्छा की। आत्माराम लोगों ने आत्मा में रमण की इच्छा की। यह चीज बन जाती है तो आनन्दास्वादन अर्थ करना चाहिये। परन्तु यह भी भगवान के रमण की इच्छा के लिये ठीक अर्थ नहीं है।
क्रमश:
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