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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इसलिये यह बुद्धिमान मात्र को समझ लेना चाहिये कि यह जिनके संकल्प मात्र से अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों की सृष्टि, स्थिति और लय होता है। वे स्वयं आत्माराम सच्चिदानन्दघन विग्रह के रमण का प्रयोजन कोई दूसरा है। परन्तु वह प्रयोजन क्या है? एक विशेष बात ध्यान में रखने की है जिन लोगों ने भगवान के ब्रह्म-मोहन लीला के सम्बन्ध में कुछ धारणा की है वे जानते हैं कि ब्रह्मा ने जब वृन्दावन विहारी गोचारण परायण भगवान के लीला माधुर्य का आस्वादन करने के लिये बछड़ों को और गोप बालकों को चुराकर माया मुग्ध करके स्थानान्तरित कर दिया उस समय भगवान ही असंख्य गोप बालक बन गये।
भगवान ही बछड़े बन गये और एक वर्ष तक लगातार आत्मरूपी गोप बालकों के साथ, आत्मरूपी बछड़ों के साथ खेलते रहे। इससे स्पष्ट यह जाना जाता है कि भगवान अगर इच्छा करते तो अपने आप ही करोड़ों गोपियाँ बन जाते और अपने आप में ही खेल करते। सामर्थ्य थी ही फिर यह गोपियों को बुलाकर के रमण की इच्छा की। इससे स्वीकार ही करना पड़ेगा कि भगवान ने गोप रमणियों के साथ जो रमण की इच्छा की इसमें विशेषता कुछ दूसरी ही है। वह साधारण बुद्धि के गोचर नहीं हैं। तो और ऐसी बात वह कोई है कि स्वयं शत कोटि गोपी बनकर जैसे वहाँ गोप बालक बने ऐसा बन जाने से भगवान की जो मनोकामना इस समय की है वह पूर्ण नहीं होती। इससे यह मालूम होता है कि इसमें कुछ विशेषता दूसरी ही है। इस प्रकार से भगवान ने जो रणम की इच्छा की यह रमण लौकिक विलास बिल्कुल नहीं है।
फिर कहते हैं एक बात और, दामोदर लीला में जब भगवान के पेट में रस्सी बाँधी गयी,माँ ने बाँधी। उस समय जो भगवान का वीर्य है - अचिन्त्य महाशक्ति वह अनिर्वचनीय चीज थी। उस लीला में वात्सल्य प्रेमवती माँ अपने बायें हाथ से भगवान के दाहिने हाथ को पकड़े हुए है। हाथ कोई इतना वृहत नहीं जो मुट्ठी में न समाया हो, मुट्ठी में उनके हाथ आ गया और उन्हीं माता की पहनायी हुई किंकिनी उनकी कमर में ज्यों की त्यों रही। छोटी नहीं पड़ी लेकिन साथ ही उसी समय बहुत सी रस्सियों को जोड़ जोड़कर माँ ने बड़ा परिश्रम किया, थक गयी परन्तु बाँध नहीं सकी। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि यशोदा मैया की बाँयी मुट्ठी में जिनका हाथ और जिनके पहनाये हुए हार और किंकिनी उनके वदन में सुशोभित थे वे ही भगवान उस समय रस्सी छोटी करने वाले बन गये, बँधे नहीं। एक साथ विभुता और मध्यवता दोनों का प्रकाश किया भगवान ने।
‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’
यह अचिन्त्य महाशक्ति वहाँ पर साफ दिखाई दी कि एक तरफ तो मुट्ठी वही छोटा हाथ है। एक तरफ कमर में वही तगड़ी है वही पतली कमर, एक तरफ गलें में हार है वही छोटा सा गला और एक तरफ सारे गायों की रस्सी इकट्ठी करके कमर नहीं बाँधी जा सकी। इतनी बड़ी कम हो गयी।यह भगवान की विभुता है। यह भगवान का छोटापन यह बड़ा विस्मयकर है। इस महाशक्ति का हम अगर ध्यान करें तो गोपियों के साथ भगवान का रमण करने की इच्छा करा और उसके लिये चेष्टा करना यह कभी संभव होता है क्या? यह सम्भव है ही नहीं।
श्रीमद्भागवत में ऐसी चीजें बहुत हैं। यहाँ तो हमने दो-तीन उदाहरण मात्र दिये हैं। जहाँ भगवान की विभुता प्रकट है और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, यश, श्री, ज्ञान-वैराग्य से परिपूर्ण है यह बात पहले भी आ चुकी है, उससे भी धारणा कर लेनी चाहिये कि ऐसी शक्ति वाले भगवान श्रीकृष्ण का रमण, प्राकृत-लौकिक रमण कदापि नहीं है। इसलिये भगवान ने रमण करने की इच्छा की-इस बात को सुनते ही रमण को लौकिक रमण मानकर कहना, सुनना, विचारना यह सिवाय अज्ञता के और अपराध के अन्य कोई वस्तु नहीं है।
पूतना राक्षसी को मातृगति दी, अघासुरादि को मुक्ति दी, व्रज वासियों को नाना प्रकार की विपत्तियों से बचाया, आग से बचाया, वर्षा से बचाया, आँधी से बचाया। यह भगवान का अनन्त यश जो सारे संसार में परिपूर्ण है। ब्रह्मा, शंकर, शेष, सनक, नारदादि भक्त जिनके यश का निरन्तर गान करते-करते कभी पूरा गान नहीं कर सकते; वे भगवान अपने नित्य यशसेव्यपरीत उत्तम श्लोक नाम वाले, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण यह परदारा रणम की वांक्षा करते, यह कभी सम्भव था? यह असम्भव चीज है। इसलिये यह रमण प्राकृतिक रमण नहीं और फिर वृन्दावनादि का दर्शन करके ब्रह्मादि मुक्त हो गये। चमत्कृत रह गये। यह वचन भागवत में आया है कि सब प्रकार की सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी भी जिनके चरणधूलिकण का स्पर्श पाने के लिये तप करती हैं। उनके लिये क्या प्राकृत रमणासक्त होना कभी सम्भव है। वे सर्वज्ञ है, स्वप्रकाश हैं, जो सबके प्रयोजनी भूत आनन्द की घनीभूत मूर्ति हैं; वे भगवान किस प्रयोजन से रमणासक्त हैं? उनको क्या अभाव है? जो प्रापन्चिक वस्तु अथवा किसी प्रकार के प्रापन्चिक भावों से सर्वथा अनासक्त हो गये, वैराग्यवान हैं वही जान सकते हैं।
भगवान के इन बातों को न जानने वाले लोग ही अपनी कुरुचि वश अपने-आप जिस रमण का अर्थ करते हैं वहीं अर्थ लगाकर भगवान इस ऊँचे-से-ऊँचे सर्वलीला मुकुट मणि इस रासलीला को अश्लील बताते हैं; और कोई-कोई बुद्धि लगाकर इसका जीवात्मा और परमात्मा का मिलन अर्थ लगातें है। वे वास्तविकता से दूर हट जाते हैं। परमहंसशिरोमणि श्रीशुकदेवजी सर्वलीला मुकुट मणि श्रीरासलीला का वर्णन करते समय ‘भगवान ने रमण की इच्छा की’ यह कहकर केवल यही नहीं दिखाया कि यह लौकिक काम-क्रीडा नहीं है बल्कि और भी विशेषता दिखाई। इससे यह समझ लेना चाहिये कि यह लौकिक तो है ही नहीं इसमें और विशेषता भी है।
यहाँ एक दूसरी बात बताते हैं कि भगवान ने रमण की इच्छा की, रमण की इच्छा करते ही क्या हुआ कि पूर्व गगन में पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया। वन-भूमि में शरद-ऋतु में, वसन्त-ऋतु का समागम हो गया, नाना प्रकार के पुष्प खिल उठे जिससे वनभूमि सौरभित और आलोकित हो उठी, मृदुल-मृदुल मलय पवन बहने लगा। नाना-भाव से वृन्दावन के देश-काल आदि भगवान की रमण की इच्छा के अनुकूल मूर्ति धारण करके प्रकट हो गये।
क्रमश:
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