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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण ने रमण करने की इच्छा की यह कहने पर श्रीकृष्ण स्वरूप के तत्त्व को जानने वाले पुरुष तो अवश्य ही यह समझते हैं कि जो भगवान सर्वशास्त्र में प्रसिद्ध हैं वे ही श्रीकृष्ण हैं और उन्होंने रमण की इच्छा की। किन्तु रमण कार्य में भगवत्ता की प्रयोजनीयता है कि नहीं-इस रमण में? यहाँ बड़ा सुन्दर विवेचन आवेगा-इस रमण में भगवत्ता की आवश्यकता है कि नहीं और रमण के साथ भगवत्ता का क्या सम्बन्ध है? यह धारणा होनी मुश्किल हो जाती यदि भगवान शब्द नहीं रहता।
व्यावहारिक जगत में देखा जाता है कि कोई यह कहे कि उस सभा में जहाँ बहुत लोग बैठे हैं उस सभा में गोपाल नामक कोई आदमी बैठा है तो जिसका गोपाल से परिचय है वह तो जान जायेगा कि गोपाल एक संगीताचार्य है। परन्तु जिसका परिचय नहीं वह नहीं जान सकेगा क्योंकि एक नाम से गुण का परिचय नहीं मिलता। परन्तु यदि यह कहा जाय कि संगीताचार्य बैठा है और गोपाल नाम है तो समझ में आ जायेगा कि यह गोपाल वही जो संगीताचार्य है। तो जो उस गोपाल से परिचित है वह तो मान ही जायेंगे कि यह संगीताचार्य है पर सब लोग नहीं मान सकेंगे। और यदि यही कहा जाय कि गोपाल उस सभा में बैठा है तो गोपाल नामक कोई व्यक्ति बैठा है इसके सिवाय कोई धारणा नहीं होगी।
शुकदेवजी महाराज भी यदि रासलीला के वर्णन के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण ने रमण की इच्छा की यह बात कहते तो श्रीकृष्ण के सथ सम्बन्ध बहिर्मुख लोग जो हैं वे यह कहते कि श्रीकृष्ण नामक एक आदमी ने रमण की इच्छा की। कृष्ण-भजनशील जो विज्ञगण हैं वे श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य, रूपादि बातों को जानते हैं तो उनके लिये मन में नहीं आती कि रमण की उपयोगिता भगवान के लिये क्या है? भगवान शब्द आने पर यह जाना गया कि यह भगवान का रमण है; नहीं तो रमण की उपयोगिता नहीं। ‘भगवान ने रमण करने की इच्छा की; इस बात से यह तत्काल ध्यान में आ गया कि भगवान का जो रमण है यह साधारण जीवों का विलास नहीं है।
इसके साथ ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्ति का सम्बन्ध है - यह स्पष्ट है। इसीलिये ‘भगवान’ शब्द जान बूझकर दिया। फिर कहते हैं कि भगवान ने रमण की इच्छा की इससे सबकी स्वाभाविक यह धारणा होनी चाहिये कि यह रमण साधारण जीव का रमण नहीं है। भगवान का रमण है और भगवान का रमण है तो साधारण रमण की अपेक्षा इसमें कोई विशेषता होनी ही चाहिये। क्योंकि केवल क्रियापद को कोई आदमी सुन ले तो कोई धारणा नहीं होती। क्रियापद के साथ जब तक कर्ता का संयोग नहीं होता तब तक ठीक बात समझ में नहीं आती। किसी ने कहा कि ‘जा रहा है।’ तो ‘जा रहा है’ से कुछ समझ में नहीं आता कि कौन जा रहा है? कहाँ जा रहा है? जाने वाला कैसा है? परन्तु कोई यह कह दे कि भगवान का वाहन पक्षीराज गरुड़ जा रहा है तो यह कहते ही धारण हो जायेगी कि जो एक निमेष में हजारों योजन जा सकता है वह गरुड़ जा रहा है। अथवा कोई यह कह दे कि चींटी जा रही है तो यह कहते ही यह धारणा हो जायेगी कि बहुत कमज़ोर धीरे-धीरे चलने वाला कोई जा रहा है। इसी प्रकार क्रियापद के साथ कर्ता का संयोग हुए बिना क्रिया का अर्थ ठीक ध्यान में नहीं आता।
इसलिये वर्णन के आरम्भ में श्रीशुकदेवजी ने ‘भगवान ने रमण की इच्छा की’ कहा तो यह धारणा हो जानी चाहिये कि यह रमण जीव का रमण नहीं है। इसमें कोई विशेषता है ही। इस बात को न जानने वाले अदूरदर्शी और झूठी विज्ञता का अभिमान करने वाले लोग यह ‘रमण’ शब्द सुनते ही कर्ता की बात ध्यान में न लगागर केवल ‘रमण’ शब्द पर ही कह देते हैं कि यह तो अश्लील वर्णन है। और जो कोई उस रमण क्रिया को बहुत परिमार्जित करके और सुख-सेव्य बना लेना चाहते हैं कि अच्छे लोग इसे समझें, जो अपने को बुद्धिमान मानने वाले लोग हैं वे यह कहते हैं कि भई! इस रूपक से जीवात्मा और परमात्मा के मिलन की बात शुकदेवजी ने कही है। यह विज्ञ लोग जो हैं ये उसका तदर्थ करते हैं। कोई कहते हैं कि भगवान की उस समय अवस्था आठ नौ दिन की थी। तो कोई-कोई कहते हैं कि यह बच्चों का खेल है। लेकिन इनमें से किसी से भी ‘भगवान ने रमण की इच्छा की’ यह बात सिद्ध नहीं होती है।
तो ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ इस बात को सुनकर भगवान के रमण की धारणा आनी चाहिये। भगवान शब्द को कोई हटाकर और केवल रमण पर ध्यान देगा तब उसकी तो कुधारणा होगी ही और वह नाना प्रकार की व्याख्या करने की कुचेष्टा किया करेगा। अश्लील बतावेगा, कुछ और बतावेगा परन्तु जो लोग भगवान की अपार कृपा से पहले ही शुकदेवजी के इशारे पर-शब्दों पर ध्यान देकर ‘यह भगवान का रमण है’ अर्थात ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्ति से सम्पन्न भगवान का इससे सम्बन्ध है तो वह जान लेगा कि यह कोई अप्राकृत जगत की बात है जो जगत के जीवों को कृतार्थ करने के लिये घटी है।
अतः इन ऐश्वर्य-वीर्यादि छः शक्तियों की बात ध्यान में आते ही यह धारणा करनी उचित है कि ऐसी महाशक्ति वाला जो कोई है उसको जी की भाँति रमण करने की इच्छा हो ही नहीं सकती। क्यों नहीं हो सकती? इसलिये कि भगवान जो हैं उनकी सर्ववशीकारत्व शक्ति का नाम ऐश्वर्य है। ऐसा सिद्धान्त है। जिसमें सबको वश में करने की शक्ति है उसको क्या अपने मन, इन्द्रियों को वशीकरण की शक्ति नहीं है। जो मन-इन्द्रियों के वश में होकर रमण करने के लिये व्याकुल हो जायेगा। और खास करके ‘स ऐच्छत बहुस्यां प्रजायेयेति।’ यह श्रुतियों से जाना जाता है कि भगवान के ईक्षण मात्र से ही प्रकृति से चराचर ब्रह्माण्ड की सृष्टि हो गयी। भगवान ने कहा-
‘मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्’
तो ऐसे भगवान जिनमें इतना ऐश्वर्य है, इतनी शक्ति है वह क्या रमण के लिये कोई प्राकृत रमण की इच्छा वाले होंगे?
क्रमश:
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