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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

मायासम्बन्धगन्धलेशविहीन ते’ माया के सम्बन्ध के गन्ध का भी लेश नहीं था। इसीलिये ब्रह्मा जी ने कहा-
प्रपञ्चं निष्प्रपञ्चोऽपि विडम्बयासि भूतले।
प्रपन्नजनतानन्दसन्दोहं प्रथितुं प्रभो।
हे भगवन! आप प्रपञ्चातीत हो करके भी आपके चरणों में जो एकानत प्रपन्न हैं - प्रेमवान भक्त उनके आनन्द वर्धन के लिये आप प्रपञ्च का अनुकरण करके अप्रापन्चिक लीला करते हैं। इसलिये श्रीकृष्ण की लीला में सम्पूर्ण-वैराग्यशक्ति का भी विकास है। यह कहते हैं कि भगवान वृन्दावन में गोप-गोपी के साथ प्रेम सम्बन्ध में आबद्ध और सम्पूर्ण रूप से उसके वशीभूत हो करके भी जब छोड़कर चले गये मथुरा फिर याद किया क्या? तो राग हो तब तो याद किये बिना रहा जाय क्या? इसलिये यह बिल्कुल निर्लिप्त रहे और उधर देखा ही नहीं। द्वारिका-लीला में असंख्य पुत्र-पौत्र, सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ-उनके एक के दस-दस बेटे-हिसाब लगाओं तो लाखों-करोड़ों की संख्या में पहुँच गयी। उन सबको लीला में एक ही दिन मरवा दिया। एक ही दिन मरवा दिया और अपने हँसते रहे। क्या किसी ने आज तक ऐसा किया है? भगवान की सारी लीला में यह बात दीखती है कि कहीं आसक्ति है ही नहीं।

भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ - भगवान ने रमण करने की इच्छा की। सबसे पहले आये ‘भगवान’ शब्द पर अपनी कुछ बातें हो चुकी हैं। शुकदेवजी महाराज ने ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ यह अगर न कहकर ‘श्रीकृष्णोपि रन्तुं मनश्चक्रे’ कहते तो लोग अनायास समझ लेते कि यह श्रीकृष्ण की लीला है। फिर यह अर्थान्तर करने वाले जो लोग हैं वह यह कहते कि श्रीयोगिनी की बात है या अध्यात्म की बात है या और कोई बात है।

तो उन्होंने ‘श्रीकृष्णोपि रन्तुं मनश्चक्रे’ न कहकर ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ यह क्यों कहा? तो कह सकते हैं कि शुकदेवजी को उनके बाद होने वाले इन अध्यात्मिक मनीषियों की कल्पना नहीं आयी होगी कि ये अर्थ करेंगे दूसरा। बड़े लोग दूसरा अर्थ करेंगे यह बात मन में नहीं आयी। दूसरी बात यह - एक शब्दार्थ-गौरव भी होता है; जैसे कोई सूर्य उदय हो रहा है ऐसा न कह करके ‘अयम् उदयति मुद्राभंजनम् पद्मलीलाम्’ - जो यह कमलनियों के मुकुलित भावों को दूर करते हैं वे उदय हुए। तो यह अलंकारिक गुणों के सिद्धान्त से यह शब्दार्थ सौष्ठव है। इसलिये शायद उन्होंने ‘भगवानपि’ कहा होगा। क्योंकि इसमें ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्तियुक्त भगवान का वर्णन है। इसमें एक बात और है - श्रीकृष्ण ने रमण करने की इच्छा की ये बात कहने पर पढ़ने वाले यही जानते कि व्रजराजनन्दन यशोदा के स्तनपान करने वाले श्रीकृष्ण अथवा बहुत कहते तो सर्वाकर्षक परमानन्दघन श्रीकृष्ण, इन्होंने रमण करने की इच्छा की। यही अर्थ ध्यान में आता। ऐश्वर्य वीर्यादि सम्पन्न जो षडविध महाशक्ति वाले भगवान हैं - यह बात ध्यान में नहीं आती। जो श्रीकृष्ण को भगवान मानते हैं उनकी बात थोड़ी दूर अलग छोड़ दें लेकिन जो अज्ञ लोग हैं, बहिर्मुख हैं, निन्दक लोग हैं उनके तो यह भाव ग्रहण में आता ही नहीं कि भगवान ने इच्छा की। कृष्ण ने इच्छा की, क्योंकि यह नरलीला विग्रह स्वरूप जो भगवान का ऐश्वर्य माधुर्यादि सम्पन्न स्वरूप है; यह जो भजन विमूढ़ लोग हैं उनके ध्यान में आना बड़ा कठिन है। इसीलिये शायद गीता में भगवान ने कहा-
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।

तो समस्त भूतों में महेश्वर हम हैं इस तत्त्व को मूढ़ लोग मेरे इस नर लीलामय विग्रह में नहीं जानेंगे। इसकी अवज्ञा करते हैं। तो श्रीकृष्ण कह देने से जो श्रीभगवान के चरण-भजन-परायण हैं उन भक्तों के मन में तो ऐश्वर्य माधुर्य निकेतन सच्चिदानन्दघन विग्रह स्वयं भगवान की धारणा हो जाती है। परन्तु जो श्रीकृष्ण तत्त्व से अनभिज्ञ हैं और भजन विमुख साधारण मानव हैं उनके मन में अधिक-से-अधिक आता तो एक सामान्य मानव या आदर्श पुरुष या महामानव, इसके आगे वह नहीं जा सकते। शुकदेवजी महाराज त्रिकालदर्शी हैं। उनको तो भगवान की बात कहनी है और श्रीकृष्ण भगवान हैं, इस बात को कहना है।

भगवान का रमण बतलाना है, मानव-रमण नहीं। इसलिये उन्होंने भगवान शब्द कहा। मतलब यह कि जो रासलीला कर रहे हैं ये मनुष्यों की भाँति मनुष्य नहीं और आदर्श पुरुष नहीं अथवा बहुत परिमार्जित बुद्धि वाले लोगों की कल्पना वाले महामानव भी नहीं। यह भगवान है ऐश्वर्य, वीर्यादि षडविध महाशक्ति इनकी स्वाभाविक सम्पत्ति है। अयाचित करूणा और भक्त वात्सल्य इनका स्वतःसिद्ध गुण है। सारे जीवों के ये नियन्ता है। ये तुम्हारी हमारी भाँति असंख्य जीवों से समन्वित कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के नायक हैं और सारे ब्रह्माण्ड इनकी भृकुटी-विलास है। इनकी भौंहों का खेल है। समस्त जड़ वस्तु और जड़ बुद्धि के अतीत इनका जो ये श्रीविग्रह है वह शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप है। हम लोग करोड़ों आदमी चाहे इनकी निन्दा करें, चाहे इनकी प्रशंसा करें इनका कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं है। तथापि ये स्वभावसिद्ध करूणावश मायाबद्ध जीवों की मोह की बेड़ी काटने के लिये स्वतः प्रवृत्त होकर, किसी दूसरे की प्रेरणा से बाध्य होकर नहीं; ये युग-युग में विविध लीला का विकास किया करते हैं।

इसलिये चाहे कोई निन्दा करे, स्तुति करे, कोई परवाह नहीं है। सूर्य उदय होता है तो न जाने कितने जीव जाकर क्या-क्या करते हैं लेकिन सूर्य के उदय होते ही जो सज्जनगण हैं नित्य, नैयेत्यिक कर्मपरायण हैं वे तो ‘नमो विवस्वते ब्रह्मन्’ यह कहकर अर्ध्यदान करते हैं। ‘ध्वायन्ताम् सर्व पापघ्नम्’ कहकर चरणों में प्रणाम करते हैं। इसी प्रकार से श्रीकृष्ण चरण सेवन परायण जो भक्त हैं वे मूढ़ों के, कुतार्किकों के, निन्दकों के अथवा अज्ञान कल्पित निन्दावाद के अथवा लीला की विचित्र-विचित्र कल्पना करके अध्यात्मिक अर्थ करने वालों की परवाह नहीं करते हैं।वे तो ‘जगन्नियन्ताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः’ कहकर भगवान के चरणों में प्रणत होते हैं। शुकदेव जी कृष्ण लीला रस तत्त्वज्ञ हैं और यह जो रासलीला है वह समस्त लीलाओं की मुकुटमणि है। इस लीला के वर्णन का आरम्भ करते समय रासरसिक श्रीभगवान के कृष्ण नाम का उल्लेख न करके भगवान के नाम से इनका परिचय देते हैं। इससे बहिर्मुख लोगों को दूसरे-दूसरे अर्थ करने की सुविधा तो मिली। श्रीकृष्ण होने पर नहीं मिलती। किन्तु भगवान कहने से भगवान के चरणों में जो नित्य शरणगत भक्त है, उनके लिये रासलीला तत्त्व, महत्त्व और सिद्धान्त जानना भी सहज हो गया।
क्रमश:

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