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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान की सर्वज्ञता शक्ति का विकास श्रीकृष्ण में जैसा था वैसा और कहीं नहीं हुआ; किसी भी लीला में। यह छः दिन के बच्चे थे। यशोदा मैया के प्रसवागार-सूति का घर में यह कोमल शैय्या पर सीधे सो रहे थे-उत्तान और माँ यशोदा देख-देखकर वात्सल्य रसास्वादन कर रही थी, मुग्ध हो रही थीं। इतने में पूतना आयी। पूतना के आते ही वह मुग्ध बाल कोचित अज्ञान की आड़ में उनका सुप्रकाश ज्ञान प्रकट हो गया।
विबुध्य तां बालकमारिकाग्रहं चराचरात्माऽऽस निमीलितेक्षणः’
यशोदा के साथ परम आदर के साथ लाड़-चाव के साथ सीधे सोये हुए शिशु ‘हरि’ हैं। वह मुग्धकारी-बाललीला सिन्धु में निमग्न रहने पर भी चराचर के अर्न्ययामी हैं। इस लिये यह बालघातिनी पूतना का आना उनसे अज्ञात नहीं रहा और कहते हैं कि दुर्जन का मुँह नहीं देखना चाहिये तो भगवान ने आँखें मीच ली। मुग्ध गोपाल बालक रूपी सर्वज्ञ भगवान की लीला के अनुसार तो वहाँ पर अज्ञता थी। छः वर्ष के बच्चे में ज्ञान नहीं रहना चाहिये। लेकिन उस अज्ञता की आड़ में महासर्वज्ञता छिपी और फिर वह प्रकट हो गयी और ऐसा उनकी बहुत-सी लीलाओं में हुआ। दो चीज एक साथ चली। एक तरफ लीला की अज्ञता और एक तरफ स्वरूप की सर्वज्ञता। ब्रह्मा जी आये श्रीकृष्ण की बाल लीला के माधुर्य का आस्वादन करने के लोभ से। ब्रह्मा जी का जो बच्चों को और बछड़ों को चुराकर ले जाना, उनको मोहित करना यह ब्रह्मा जी के लीला रसास्वादन की इच्छा थी। देखें और देखें। वहाँ पर पहले तो भगवान ढूँढने गए। वन में ढूँढा, इधर-उधर ढूँढा-अज्ञता और उसके बाद-
सर्व विधिकृतं कृष्णः सहसावजगाम ह’
तुरन्त उनके यह बात ध्यान में आ गयी। पूर्ण सर्वज्ञता का विकास हो गया कि सारा काम ब्रह्मा का है, जान गये। यह किस बाल लीला में सर्वज्ञता प्रकट हुई? किसी अवतार में नहीं हुई। यहाँ दिग्दर्शन के लिये केवल दो चीज बतायी है। इनके तो ऐसी बहुत-बहुत हुई। लेकिन कृष्ण लीला में विशेष बात और जो मत्स्य, कूर्मादि में नहीं हुई, वह है सुप्रकाशिता। और लीला में क्या हुआ कि सभी ने उनको चाहा, उनसे चाहा। किसी ने भोग माँगा, किसी ने मोक्ष माँगा, किसी ने सिद्धि माँगी परन्तु इस लीला में विचित्रता है। व्रज में गोप, व्रज की गायें, व्रज की गोपियाँ- इनकी लीला देखने से यह मालूम होता है कि सभी श्रीकृष्ण की सेवा के लिये लालायित हैं। विशुद्ध अनुराग में माँगते नहीं हैं। सब देने को लालायित है। गाय कहती हैं कि हमारा जो अमृत को भी मात करने वाला दूध है; यह श्रीकृष्ण पीते रहें। गाय चाहती हैं कि हमारे स्तनों को आकर कन्हैया मुँह लगा ले। मुँह से पीलें तो हम निहाल हो जायँ। श्रीकृष्ण के लिये जिस गाय के दूध दुहा जाता है उसका दूध बढ़कर दूना, तिगुना हो जाता। अमृतत्त्व आ जाता। व्रज के पशु-पक्षी, वृक्ष-लता सब-के-सब किसी ने श्रीकृष्ण से कुछ नहीं चाहा और जिसके पास जो था उसे श्रीकृष्ण के आनन्दवर्धन के लिये प्रस्तुत किया था।
सबने दिया। किसी ने माँगा नहीं। औरों की बात ही क्या मयूरादि पक्षी-ये अपने पंखों में-पिच्छ को सुन्दर बनाते इस लिये कि यह हमारी पँख ले लें और अपना जूड़ा बना लें। मयूरों ने इस प्रकार से सेवा की। वृक्ष-लताओं ने सब प्रकार के फूलों से परिपूर्ण होकर के अपनी सेवा प्रदान की। कोयलों ने, शुकों ने मधुर आलाप किया। जब वे पास आते तो ये मजे में गाने लगते। सुग्गे बोलने लगते, कोयल बोलने लगती कि इनको आनन्द मिले ऊँचे वृक्ष दूर से देखते-जब देखते किये आ रहे हैं तो फल-फूलों से लद जाते और दूर से कहते कि हमारे फल लगे हैं इधर आ जाओ। यह मानो पुकारते श्रीकृष्ण को। कन्हैया! इधर आओ हमारे पास मधुर फल है। छाया बड़ी अच्छी है, ऊपर देखो! हमारे फलों में कितनी सुगन्ध है। तुम इधर आ जाओ।
इस प्रकार सबने श्रीकृष्ण को दिया और सदा ही ये मन में किया सबने कि हमको भोगते रहें। हमारा उपभोग करते रहें-जड़-चेतन सब। व्रज की गोप-कुमारियों ने कात्यायिनी-व्रत किया-श्रीकृष्ण को पतिरूप में पाने के लिये। इससे यह बात सिद्ध होती है कि व्रजलीला में कृष्ण ही सबके प्रयोजन हैं। उनकी सेवा प्राप्त करने के लिये सब लालायित हैं। श्रीकृष्ण की जो सर्वप्रयोजनीयता है इसका पूर्ण विकास यहीं पर हुआ और कहीं नहीं हुआ। अन्यान्य लीलाओं में नहीं हुआ। सभी ने सबसे ‘धनं देहि, यशो देहि, पुत्रं देहि’ कहा। नारायण के पास भी गये लोग तो माँगा महाराज दे दो-मुक्ति दे दो। परन्तु व्रज के विशुद्ध अनुरागमय क्षेत्र में सबने कहा ले लो! ले लो!! ले लो!!! यह चीज कहीं भगवान के किसी स्वरूप में नहीं हुई। किसी ने प्रार्थना नहीं की। बल्कि सबने देना चाहा। किसी ने अगर माँगा भी तो दूसरी चीज भी माँगने वाले को इन्होंने अपने को ही दे दिया। श्रीकृष्ण लीला की सर्वज्ञता, सर्वप्रकाशिता, सर्वप्रयोजनीयता-यह तीन प्रकार की ज्ञान शक्ति का पूर्ण विकास यहीं पर हुआ और कहीं नहीं हुआ।
भगवान की वैराग्यशक्ति, विषयासक्तिशून्य साधकों के वैराग्य की भाँति साधनलब्ध वस्तु नहीं है। यह भगवान की स्वाभाविक निर्लिप्तता है। इसे भगवान ने गीता में कहा-
‘मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववास्थितः’
हम उनमें लिप्त नहीं हैं, वे हमारे में हैं। इस प्रकार से ये सबके सब प्रकार से पूर्णरूप से आकर्षक होकर प्रकट और कहीं नहीं हुये। फिर कहते हैं कि भगवान ने पुरुषावतान में प्रकृति का निरीक्षण किया। प्रकृति की ओर देखा और उससे विश्व की सृष्टि हो गयी। यद्यपि प्रकृति के साथ भगवान का सम्बन्ध नहीं है परन्तु कम-से-कम सम्बन्ध निरीक्षण का तो है। प्रकृति को देखा और भूमि का भार-हरण करने के लिये अवतीर्ण भगवान में भू-भार-हरण कार्य के साथ कोई बाध्य-बाध्यता न होने पर भी इसमें जगत की किंचित गन्ध तो थी ही न! परन्तु श्रीकृष्ण के इस स्वरूप में माया और मायिक जगत की कोई गन्ध भी नहीं है। इनका यह प्रपञ्चानुकरण में प्रपञ्चातीत लीला थी। इसको देखकर प्रपंची लोग भले ही प्रंपच मान लें उनमें; परन्तु यह सम्पूर्ण रूप से माया सम्बन्ध गन्ध लेशविहीन हैं।
क्रमश:
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