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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

जय-विजय जो थे हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष बने, फिर रावण-कुम्भकर्ण बने तो मारा उनको, विनाश किया परन्तु वहाँ उनकी मुक्ति थोड़े हुई। वह जब शिशुपाल-दन्तवक्त्र बने तब इन्होंने मारा और तब मुक्ति हुई। तो यश-विस्तार भी यहाँ पूरा है। वहाँ माने का यश-विस्तार तो है परन्तु इनकी मुक्ति नहीं हुई। यह तो जय-विजय थे जिनके तीन जन्मों के बाद मुक्ति हुई और मुक्त यहाँ हुए, वहाँ नहीं हुए। इसलिये भगवान के यश का विस्तार भी यहीं हुआ। क्योंकि मृत्युकाल में यदि भगवान की भगवत्ता परिपूर्ण रूप से जागृत हो जाय तो मुक्ति हुए बिना रहती नहीं है।हिरण्यकश्यपु जब नृसिंह भगवान के द्वारा मारा गया तब भी उसमें भगवत बुद्धि नहीं थी। हिरण्याक्ष में भगवत बुद्धि नहीं थी भगवान द्वारा मारे जाने के समय और रावण में संन्देह था कि नर है कि ईश्वर है परन्तु शिशुपालदि के अनुभव से सिद्ध है कि उनकी मुक्ति हो गयी। भगवान से उसका द्वेष था परन्तु उसकी मुक्ति हो गयी। क्यों हो गई? ऐसा वर्णन आता है कि चतुर्भुज भगवान का सेवक था शिशुपाल। श्रीकृष्ण के साथ तो द्वेष था पहले से और शिशुपाल निरन्तर उनके सहस्रनाम का पाठ करता तो श्रीकृष्ण नामोच्चारण होता। इस बार-बार के नामोच्चारण से और भय के मारे रूप-चिन्तन से शिशुपाल के प्राणनाश होने के साथ ही लोगों ने देखा उसकी मुक्ति हो गयी। प्रमाण क्या है? सारी सभा प्रमाण है। यह छिपकर काम नहीं हुआ वहाँ पर कि मुक्ति कहीं चुपचाप, गुपचुप मिल गई हो-सो नहीं। सभा में सबने देखा तेज निकला और वह तेज भगवान के चरणों में प्रवेश कर गया। ऐसा हिरण्यकश्यपु के साथ नहीं हुआ। इसलिये इनके यश का विस्तार-जितना यहाँ है उतना अन्यत्र नहीं। इसी प्रकार से कूर्मादि मूर्तियों में ‘श्री’ है अर्थात सर्वसम्पत्ति है परन्तु वहाँ की सर्वसम्पत्ति में पूर्ण विकास नहीं है।

श्रियः कान्ताः कान्तः परम-पुरुषः कल्पतरू
द्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयी तोयममृतम्।
कथा गानं नाट्यं गमनपि वंशी प्रियसखी
चिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च।
भगवान श्रीकृष्ण ने जब वृन्दावन में लीला की उस समय उनका जो वैभव प्रकाश हुआ सम्पत्ति का वह कहा नहीं जा सकता। इस लीला में महालक्ष्मीयाँ तो कान्ता और परमपुरुष श्रीकृष्ण उनके कान्त। वृन्दावन के सारे वृक्ष कल्पवृक्ष। वृन्दावन की भूमि चिन्तामणिस्वरूप। वृन्दावन के जल के सरोवर सभी अमृत। संगीत ही थी वृन्दावन की बात चीत। सभी गाने में ही बोलते थे वहाँ पर। प्रत्येक के बोल में ही राग निकलती थी और वृन्दावन का नृत्य ही गमन, मानों नाच रहे है प्रत्येक आदमी और वृन्दावन की जगन्मोहिनी वंशी श्रीकृष्ण की प्रिय सखी। वहाँ के चन्द्र सूर्यादि और रूप-स्पर्शादि सारे-के-सारे सच्चिदानन्दमय हैं। कृष्ण लीला के सिवाय ऐसी अनिर्वचनीय शक्ति का प्रकाश और कहाँ हुआ? यह भगवान के ऐश्वर्य वीर्यादि षडसम्पत्ति के अन्दर यह महाशक्ति हैं।

श्रीशक्ति का होता है एक अलग स्वरूप-रूप-सौन्दर्य। कहते हैं कि श्रीकृष्ण का जो रूप है यह परिपूर्ण भाव से प्रकट है। भगवान ने सारी मूर्तियों में लीला की और सभी बड़ी सुन्दर परन्तु श्रीकृष्ण मूर्ति जो है वह सर्वमनोरम है। प्रह्लाद ने भगवान नृसिंह में भी सौन्दर्य देखा इसमें सन्देह नहीं लेकिन श्रीकृष्ण में उसमें अन्तर है क्योंकि वह सबको नहीं दिखाई दिया। ब्रह्मा डर गए, लक्ष्मी डर गयीं, देवता डर गए, ऋषि-मुनि, तत्त्वज्ञ डर गए परन्तु प्रह्लाद को सौन्दर्य दीखा। श्रीकृष्ण की मूर्ति जो है यह सुरासर चित्त-चमत्कारिणी है और यहाँ तक कि अपने-आपको मोहित कर लेती है। अपने रूप को कहीं दर्पण में देख लेते थे तो मोहित हो जाते थे, अपने रूप में स्वयं ही। यह सर्वविस्मातनी, आत्मविसमातनी भगवान की मूर्ति है।

भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति, नर-लीलारूप और चित्तशक्ति-वैभव के प्रकाश के लिये ग्रहित, अपने आपको मोह देने वाली, सौभाग्य सम्पत्ति से युक्त, भूषण की भी भूषण स्वरूप, गहनों को भी सजा दे ऐसी है। माने दूसरी मूर्तियाँ बाहर की चीजों से सज्जित होती हैं। कहते हैं कि ऐसा कपड़ा पहनाओ, ऐसा गहना पहनाओ। यह आया है कि एक दिन यशोदा मैया गहने और कपड़े पहनाने लगीं। पहनावें उतार दें फिर पहनाती फिर उतार दें तो सखियों ने कहा कि मैया! क्या तू आज पगली हो गयी है। यह पहनाती फिर उतारती, पहनाती फिर खोलती, क्या बात है? तो बोलीं कि, यह नहीं पहनाती तो सुन्दर दीखता है और पहनाने पर सुन्दरता घट जाती है। कपड़े, गहने पहनाकर इसकी सुन्दरता घटा रही हूँ- ऐसा मालूम पड़ता है। एक सखी बोली, मैया! इसको कपड़े पहनाओ, ठीक है, परन्तु यह भूषण का भूषण है, अलंकार का अलंकार है, शोभा की शोभा है, परन्तु इसको किसी से शोभा हो जाय; यह ऐसा नहीं है। तो कहती है कि ऐसा सौन्दर्य, ऐसी श्री किसको प्राप्त हुई? किसी को नहीं हुई।

सन्ति भूपि निरूपानि मम पूर्णानि षडगुणैः।
भवेयुसतानि तुलयानि न मया गोपरूपया।

भगवान ने स्वयं कहा कि ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध सम्पत्ति से परिपूर्ण मेरी अनन्त मूर्तियाँ हैं। सबमें लीला करता हूँ लेकिन मेरा जो यह गोपरूप-कृष्णरूप है इसकी तुलना कहीं नहीं होती है।

चैत कृष्णदेवस्य सर्वमेवाम् अद्भुतं भवेत।
गोपालीला तत्रापि सर्वतोत् मनोहराः।
भगवान श्रीकृष्ण किसी प्रकार से भी कोई लीला क्यों न करें; वह परम अद्भुत है, परम मनोहर है। उनका चलना भी, खेलना भी, खाना भी, सोना भी, सब मनोहर और उनकी जो गोपाल लीला है यह तो जैसी मनोरम और अद्भुत है वैसी और कोई लीला है ही नहीं।

इस प्रकार शास्त्र वचनों से यह बात सिद्ध होती है कि भगवान की नाना मूर्तियों-मत्स्य, कूर्मादि, नृसिंह में महाशक्ति परिपूर्ण स्वरूपगत सम होने पर भी कृष्ण मूर्ति में परिपूर्णता का विकास है, इसलिये ‘श्रीकृष्णस्तु भगवान स्वयम्।’ इसमें ज्ञान-वैराग्य का भी पूर्ण प्रकाश है। भगवान की सर्वज्ञता, स्वप्रकाशिता और स्वप्रयोजनीयता को ज्ञान शक्ति कहते हैं। साधारणतः हम लोग ज्ञान का अर्थ समझते हैं कि किसी विषय वस्तु की जो चित्तवृत्ति हो जाय उसका नाम ज्ञान। किन्तु ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम्’ यह श्रुति है। कोई यह वस्तु विषय की चित्तवृत्ति नहीं है। जब वस्तु की सृष्टि ही नहीं हुई थी तब भी भगवान का स्वरूप भूत ज्ञान था। यह भगवान का स्वरूप था ही। इसलिये भगवान की जो सर्वज्ञता शक्ति है-ज्ञान-यह भगवान की सम्पत्ति है इसमें कोई सन्देह नहीं।
क्रमश:

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