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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
योगी के योगसाधन से परमात्मा रूप की अभिव्यक्ति होती है और भक्तों के भक्ति साधन से वही भगवान भगवत रूप से प्रकाशित होते हैं। जो मत्स्य, कूर्मादि अनन्त मूर्तियों में अनन्त लीला करते हैं, उन्हीं भगवान सच्चिदानन्द विग्रह स्वयं श्रीकृष्ण ने रमण करने की इच्छा की। यह दिखाया कि ब्रह्म, परमात्मा और अनन्त अवतार स्वरूप इनमें तत्त्वतः स्वरूपतः भेद नहीं है। इच्छा उन्होंने ही की परन्तु उनमे इच्छा है नहीं यह भगवान शब्द इसीलिये आया है कि ब्रह्म से और परमात्मा से और अन्यान्य अवतारों से यह अलग है। ‘श्रीकृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ यहाँ जो भगवान है वह श्रीकृष्ण के लिये है। अवतारों से भेद, ब्रह्म-परमात्मा से भेद स्वरूपतः भेद नहीं है। तो ‘भगवान्पि ता रात्रीः’ इस श्लोकांश में ‘भगवान’ शब्द पर विचार करने से पूर्वोक्त युक्तियों के द्वारा यह सिद्ध हो गया कि यहाँ पर श्रीकृष्ण ही ‘भगवान’ शब्द वाच्य है।
इसीलिये कहते हैं यही स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही ज्ञान और योग साधना की सिद्धि की दशा में ज्ञानी और योगियों को निश्चल चित्तवृत्ति के द्वारा ब्रह्म और परमात्मा रूप से प्रकाशित होते हैं और यह भगवान मत्स्य, कूर्म, नृसिंह, राम, नारायण आदि मूर्तियों में आविर्भूत होकर विविध लीलास्वादन करते हैं। तथापि यह सर्वलीला मुकुटमणि रासलीला यह उनकी कृष्णमूर्ति में अनुष्ठित होती है और मूर्तियों में नहीं। यह लीला इनकी इसी मूर्ति का निजस्व है। अर्थात रासलीला, श्रीकृष्ण विग्रह का निजस्व है। अपनी चीज। और मूर्तियों में षडविध शक्ति रहने पर भी इस लीला का विकास नहीं। तो अब फिर कहते हैं कि यहाँ पर इन छः महान शक्तियों का पूर्ण विकास है।यहाँ बड़ी सुन्दर बात है कि मत्स्य, कूर्मादि लीला में क्या भेद दिखाते हैं कि सब मूर्तियों में भगवान की जो वशीकरण शक्ति है उसका विकास है; परन्तु सर्ववशीकारत्व का विकास नहीं है। क्यों? तो कहते हैं कि उन मूर्तियों में भगवान ने दूसरे सबको निजवश में किया और अपने किसी के वश में नहीं हुए। औरों को अपने वश में किया और स्वयं वशीभूत नहीं हुए। आत्मपर्यन्त - अपने को भी वश में करने से जो सर्ववशीकारत्व शक्ति की सिद्धि होती है वह उनमें नहीं हुई।
भगवान की एक मात्र श्रीकृष्ण लीला में ही ऐसा हुआ। माँ यशोदा के बन्धन में बद्ध होकर ‘दामोदर’ नाम से प्रसिद्ध इसी अवतार में हुए और कहीं नहीं हुए। कहीं भी पेट में रस्सी बँधवाकर दामोदन बने हों-अपने-आपको किसी के वश में कर दें ऐसा कहीं नहीं हुआ और खेल ही खेल में-एक दिन की बात है कि इनमें आपस में होड़ लगी कि जो हारे वह घोड़ा बने। तो इनको हरावे कौन? भगवान में सर्ववशीकारत्व शक्ति का विकास है। स्वयं हारना चाहें तो हारें। तो हार गये। हार गये तो श्रीदाम ने इनको घोड़ा बनाया। ये श्रीदाम के घोड़े बने और श्रीदाम इन पर सवार हो गये और ये ले गये वंशीवट तक। इसी अवतार में मानिनी श्रीराधा के चरणों की साधना की - ‘देहि में पदपल्लवमुदारम्’
अतएव इस प्रकार भगवान ने आत्मपर्यन्त अपने-आपको सर्ववशीकारत्व शक्ति के द्वारा वश में किया हो ऐसा कहीं नहीं किया। यहीं किया और यह चीज बड़ी कठिन। विचार करने पर मालूम होता है कि दूसरे को वश में रखने की अपेक्षा अपने को वश में करना कठिन है। कोई अच्छा विद्वान, बुद्धिमान, बलवान आदमी यह कभी कर नहीं सकता कि अपने को वश में करा दे। शक्तिमान व्यक्ति मात्र हीन शक्ति को तो अपने वश में करना चाहता है और कर सकता है। परन्तु स्वयं शक्तिमान होकर भी शक्तिहीन व्यक्ति के वश में हो जाय, ऐसे श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीदाम क्या शक्ति, यशोदा में क्या शक्ति, राधिका में क्या शक्ति, सारी शक्ति तो इनकी परन्तु उनके वश में हो गये। यह सर्ववशीकारत्व ऐश्वर्य का प्रकाश श्रीकृष्ण में ही हुआ और कहीं हुआ नहीं। ‘ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः’ तो यह भगवान हैं और सब तो ईश्वर हैं। यह परम ईश्वर हैं क्योंकि इसमें यह अपने को भी दूसरे के वश में रखने में समर्थ हैं। अपने को दूसरे के वश में कर दे शक्तिमान यह उस शक्तिमान की बड़ी सामर्थ्य है। मामूली बात नहीं।
श्रीकृष्णलीला में जैसे परिपूर्ण ऐश्वर्य का विकास है इसी प्रकार अचिन्त्य महाशक्ति ‘वीर्य’ का भी पूर्ण विकास है। वह कैसे? श्रीकृष्ण लीला में पूतना का वध किया, रामलीला में भी तो राक्षसी ताड़का का वध किया - एक सी बात। परन्तु नहीं, राक्षसी का वध दोनों ने किया यह तो एक-सी बात परन्तु वध करने की प्रक्रिया में, स्थिति में भेद है। श्रीरामचन्द्र जी और श्रीकृष्ण में भेद नहीं है। परन्तु भगवान श्रीरामचन्द्र ने विश्वामित्र के पास पहले महान प्रभाव वाले अस्त्रों की शिक्षा ग्रहण की। जब विश्वामित्र ले गये तो पहले राम को अस्त्रदान दिये। उसके बाद ब्रह्मतेजसम्पन्न शस्त्र के द्वारा उन्होंने ताड़का का विनाश किया, मारा। किन्तु पूतना को मारने में कौन-सा अस्त्र लिया भगवान ने। स्तनपायी - छः दिन के बच्चे-स्तन पीने वाले उस शिशुमूर्ति ने स्तन्य पान करते करते घोराकृति पूतना राक्षसी का संहार कर दिया। इस ‘वीर्य’ का प्रकाश और कहाँ हुआ बचपन में? पुनश्च, गोवर्धन धारण यह अचिन्त्य शक्ति का ही वैभव है। भगवान ने कूर्म मूर्ति में भी तो पृथ्वी धारण किया था परन्तु भेद है।
कूर्म मूर्ति में मन्दर पहाड़ को धारण किया पीठ पर; तो वहाँ पीठ को सौ योजन विस्तारवाली बनाया पहले। सौ योजन विस्तारवाली कूर्म की पीठ बनी तब उस पर मन्दराचल को धारण किया, पहाड़ उठाया। पर यहाँ पर तो कनिष्ठि का अँगुली पर यों उठा लिया गिरिराज को। यह वीर्य का प्रकाश कहीं और हो तो बताओ? उस समय सात वर्ष के बालक थे। कूर्मावतार में केवल मन्दराचल को उठाया तो वहाँ भी नीचे समुद्र रहा, यहाँ तो अँगुली पर उठाया और उसके नीचे तमाम व्रजवासियों की रक्षा की। गो-गोपी सबकी रक्षा की। अतएव श्रीकृष्ण लीला के समान अचिन्त्य वीर्य का शक्ति का प्रकाश और कहीं नहीं है।इसी प्रकार यश का, श्री का, ज्ञान का, वैराग्य का, पूर्णतम प्रकाश इस मूर्ति में है। भगवान की सभी लीलाओं में यश है, सद्गुण की ख्याति है। इसमें कोई सन्देह नहीं परन्तु परिपूर्णता नहीं। भगवान राम ने, नृसिंह ने लीलाओं में असुरों का विनाश किया परन्तु उनकी किसी भी लीला में असुरों की मुक्ति नहीं हुई।
क्रमश:
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