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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
तो भगवान की रासलीला के वर्णन के अंत में शुकदेव जी कहते हैं कि गोपी, गोपियों के पति और समस्त जीवों के अन्तर में जो अन्तर्यामी रूप में अवस्थित हैं - वे ही लीला विग्रह में अवतीर्ण होकर गोपियों को दिखाई दिये; और उन्हीं से गोपियों का विविध विहार हुआ। इससे जाना जाता है कि ‘ब्रह्म’ किंवा परमात्मा के साथ रासक्रीडा का स्वरूपतः कोई भेद नहीं है।स्वरूपतः भेद न होने पर भी गोपियों को ब्रह्म या परमात्मा का अनुभव नहीं हुआ। इस लीला के साथ ब्रह्म और परमात्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है; एक होने पर भी। ऐश्वर्य, वीर्यादि षडविध महाशक्ति निकेतन जो सच्चिदानन्दघन विग्रह श्रीभगवान हैं; वे उस लीला के नायक हैं। लीला में नायक होना चाहिये। तो भगवान ने रमण करने की इच्छा की। ‘भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ इस श्लोकांश के द्वारा कोई यह अर्थ करे कि ब्रह्म किवां परमात्मा का जीव चैतन्य के साथ मिलन है और उसका यह रासलीला का वर्णन है तो कहते हैं कि यह तात्पर्य ठीक नहीं समझा गया। यह भगवान का वर्णन है!
अब स्वरूपतः भगवान की बात है। श्रीभगवान स्वरूपतः एक होने पर भी - ब्रह्म परमात्मा की बात तो आ गयी अब भगवान के अलग-अलग भेद हैं। श्रीभगवान स्वरूपतः एक होने पर भी ‘एकमेवाद्वितीयम्’ सिद्धान्त है। उनकी लीला की अनन्ता से उनके श्रीविग्रहों की लीलारूप अनन्तता सब शास्त्र सिद्ध है। मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, राम, नारायण आदि जो अनन्त मूर्तियाँ हैं - यह भगवान की ही मूर्तियाँ हैं और ये अनन्तलीला करते हैं।
रासलीला उन अनन्त लीलाओं में अन्यतम लीला है। इसमें नव किशोर नटवर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की मूर्ति ही इन अनन्त मूर्तियों में अन्यतम है। ब्रह्म और परमात्मा के साथ जैसे भगवान का स्वरूप भेद जरा भी न होने पर भी अविर्भाव भेद है, लीला भेद है। इसी प्रकार मत्स्य-कूर्मादि के साथ भी श्रीकृष्ण का स्वरूप भेद जरा भी न होने पर भी लीला भेद से आकृति भेद है।
अनन्त प्रकाश कृष्णेर नाहीं मूर्तिभेद।
आकार, वस्त्र, वर्ण, भेद नाम विभेद।
श्रीमद्भागवत के कृष्ण लीला वर्णन के प्रकरण में ही रासलीला का वर्णन है। ‘योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः’[1] इस प्रकार से रासलीला के सौष्ठव का प्रदर्शन किया गया तो यह भी धारणा रखनी चाहिये यहाँ पर कि उसी भगवान ने मत्स्य-कूर्मादि अनन्त रूपों में अनन्त लीला करने पर भी रासलीला किया, कृष्णरूप में ही और रूपों में नहीं।
तो यदि रासलीला को कोई चौसठ योगिनियों की लीला कहे, कालिका नृत्य कहे और भूत-प्रेत, पिशाच, प्रमथादि के साथ महादेव का नाच कहे, हनुमान और जाम्बवान इत्यादि का रावण वध के बाद जयोल्लास का नृत्य कहे तो वह भले कहे परन्तु यह युक्तिसंगत बात नहीं। न तो यह ब्रह्म के साथ जीव का मिलन है, न यह ब्रह्म और परमात्मा का विषय है। यह भगवान का विषय है और भगवान में भी श्रीकृष्ण रूप का विषय है। यहाँ तक यह सिद्ध किया। कहते हैं कि यह मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, राम, नारायण, कृष्ण इनमें भेद नहीं है यह फिर ध्यान में रखें। इनमें भगवान का प्रकाश भेद मात्र है।
‘मनिर्यषा विभागयः नीलपीतादि चिरयुतः रूपभेदम् वाप्नोति ध्यानभेदोतथाच्युत’
जैसे एक ही वैदूर्यमणि नील पीतादि वर्ण विशेष रूप में अलग-अलग समय पर अलग-अलग व्यक्यिों को अलग-अलग रूप में दीखती है, उसी प्रकार एक ही भगवान विभिन्न साधकों को विभिन्न भावना से विभिन्न लीला-समन्वित विभिन्न मूर्तियों में प्रकाशित दीख पड़ते हैं। इसमें रूप भेद न करें। लीला भेद है। यह जो लीला भेद है यह साधक की साधना, प्रेमी का प्रेम और लीलामय की लीला-विचित्रता की अभिव्यक्ति है।
इसलिये भगवान ने रमण करने की इच्छा की। इस श्लोकांश को देखने पर यह मानना चाहिये कि भगवान श्रीकृष्ण ने रमण की इच्छा की। फिर कहते हैं कि भगवान की किसी भी लीला का तात्पर्य यदि खोजने जायँ, रसास्वादन में यदि हमारी प्रवृत्ति हो तो सबसे पहले यह ध्यान रखना चाहिये कि सच्चिदानन्दसिन्धु जो श्रीभगवान हैं वे निरन्तर अनन्त लीलातरंगों से तरंगायित है अर्थात यह जो सच्चिदानन्दसिन्धु भगवान हैं - निरन्तर इनमें अनन्त लीला की तरंगें उठती रहती हैं। उनमें जो जिस तरंग में डूबना चाहे उसके लिये उसी का अनुसंधान करना चाहिये। मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंहादि ये सभी एक ही भगवान के लीला विग्रह हैं और इन सारी मूर्तियों में कोई स्वरूप भेद न होने पर भी ऐश्वर्य, वीर्यादि शक्ति के प्रकाश में, लीला भेद से तारतम्य होने के कारण से ही इनका तात्त्विक लोग अंश, पूर्ण कलादि नाम रखते हैं। स्वरूप भेद नहीं है। तो भगवान के इन मूर्तियों में स्वरूप भेद न होते हुए भी उन मूर्तियों में जो लीला करते हैं वह अन्य में नहीं करते। इसीलिये श्रीमद्भागवत में यह वर्णन है कि वहाँ जो लीलाएँ होती हैं वह लीला सीमित होती है। भगवान में सीमा नहीं है।भगवान की पूर्णता में भेद नहीं है। स्वरूप में भेद नहीं परन्तु लीला विकास में भेद है। इसलिये ‘ऐते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम्।’ ‘अंशकला का अर्थ उनकी पूर्णता में कमी नहीं है। यह भगवान के जो मत्स्य-कूर्मादि अवतार समूह हैं इसीलिये भगवान के अंशावतार, कलावतार ऐसे माने जाते हैं। भगवान का जो श्रीकृष्ण विग्रह है यह स्वयं परिपूर्ण है। तो भगवान जब मत्स्य, कूर्मादि लीला करते हैं तब उनके परिपूर्ण ऐश्वर्य के प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है। उनमें है नहीं, सो बात नहीं। भई! एक आदमी एक मन बोझ उठा सकता है परन्तु बोझ दो सेर ही है तो दो सेर उठाता हुआ दीखता है परन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि वह एक मन नहीं उठा सकता है। इसी प्रकार से वहाँ पर परिपूर्ण रूप से ऐश्वर्य-वीर्यादि शक्तियों के प्रकाशन की आवश्यकता नहीं परन्तु जब श्रीकृष्ण रूप में लीला करते हैं भगवान तब उनकी सारी शक्तियों का प्रकाश होता है - इसलिये कहते हैं कि ये ‘स्वयं भगवान हैं - ‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्।’
भगवान ने रमण करने की इच्छा की - ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ इस पर अगर निरपेक्ष भाव से समालोचना की जाय तो यह बात ठीक ध्यान में आती है कि लीला प्रकरण भगवान की अनन्त मूर्तियों के तारतम्य से यह एक होने पर भी ज्ञानी के ज्ञान साधन से निर्विशेष ब्रह्मरूप की अनुभूति होती है।
क्रमश:
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