11

11-
श्रीरासपंचाध्यायी- हनुमानप्रसाद पोद्दार

दो चीज साथ हुई उसमें-इतना अपार दुःख हुआ उसे कि जिसकी सीमा नहीं और उसी के साथ-साथ भगवान श्यामसुन्दर का ध्यान हो गया। वो दीखने लगे संसार में जो हमारा रहना है शरीर को लेकर, यह है पाप-पुण्य के कारण से। जिसको ज्ञान होता है, जो पुरुष मुक्त होता है उसमें पाप-पुण्य दोनों का नाश हो जाता है, ज्ञान के द्वारा कर्मनाश। तो उस गोपी के कुछ पुरातन संस्कार थे इसीलिये वह रुकी नहीं। रोक भी नहीं सकते थे घरवाले। परन्तु कुछ संस्कार थे, कुछ जडता थी उसमें।

एक उदाहरण दिया कि एक गोपी थी। उसको रोका गया। उसे भगवान के वियोग में इतना दुःख हुआ कि जो दुष्कर्म उसके शरीर को बनाये रखने वाले थे वे नष्ट हो गये। माने पाप का भोग एक क्षण में हो गया। अब रह गये पुण्य। हम सबमें पाप-पुण्य दोनों हैं। केवल पाप या केवल पुण्य नहीं है। उस गोपी को इतना सुख मिला भगवान के उस ध्यान में कि जिससे उसके पुण्य का फल प्राप्त हो गया। उसका शरीर नष्ट हो गया और शरीर नष्ट होते ही दिव्य देह की प्राप्ति हो गयी और दिव्य शरीर से, गोपी शरीर से वह तुरन्त भगवान के समीप पहुँच गयी औरों से पहले।

यह गोपी भाव। उनका शरीर तो घर में रह गया परन्तु उनके वियोग से उनके सारे पाप कलुष धुल गए और ध्यान में प्राप्त भगवान के प्रेमालिंगन से उनके समस्त पुण्यों का परमफल उन्हें प्राप्त हो गया और वे भगवान के पास सशरीर पहुँचने वाली गोपियों से पहले जा पहुँची। भगवान में मिल गयी। यह गोपियों का स्वभाव है। भगवान बड़े लीलामय एवं लीला नटवर हैं और ये लीला नटवर भी गोपियों के इशारे पर नाचने वाले। भगवान गोपियों के इशारे पर नाचने वाले। ऐसा क्यों? यह बहुत सन्दर बात है। इच्छा यहाँ भगवान की है, गोपियाँ तो केवल भगवान का सुख-सम्पादन करने वाली हैं। लेकिन भगवान की इच्छा ने गोपियों में इच्छा पैदा की। जो उनकी इच्छा से उन्हीं के प्रेमाभान से भगवान ने यह सब लीला की। वंशी बजायी, गोपियों ने उसे सुना, गोपियों ने अभिसार किया और भगवान के पास जब ये आयीं, इच्छा इन्हीं की लेकिन भगवान ने ऐसा स्वांग बनाया वहाँ पर कि मानों भगवान को पता ही नहीं कि गोपियाँ आयी हुई हैं।

क्यों आयीं तुम लोग? भगवान ने पूछा- स्वागतं तो महाभागा प्रियं किं करवाणि वः।तुम लोगों का स्वागत है। तुम भला इतनी रात में क्यों आयी? इसका मतलब क्या था? वे शायद गोपियों के मुँह से अपने हृदय की बात सुनना चाहते हैं। माने गोपी-हृदय का उद्घाटन, गोपी-हृदय के रहस्य का खोलना भगवान ने यहाँ कराया गोपी के मुँह से। गोपी क्या वस्तु है? यह संवाद आगे आयेगा। पहले श्लोक में भगवान ने जो कहा और गोपियों ने जो उत्तर दिया उससे सिद्ध हो जायेगा कि गोपी-हृदय क्या होता है?

भगवान विप्रलम्भ के द्वारा मानों मिलन के भाव को परिपुष्ट करना चाहते हैं। इसलिये पूछने में क्या-क्या पूछ गये? भाई घर में सब राजी-खुशी है न! कोई व्रज में विपत्ति तो नहीं आ गयी? कैसे इस समय भागकर यहाँ आयी। घर वाले ढूँढ़ते होंगे यहाँ ठहरना ठीक नहीं और वन की शोभा अगर देखने अयी तो वन की शोभा भी अब देख ली, अब लौट जाओ। देखो! तुम्हारे गायों के बछड़े सब खुले रह गये हैं और देखो बच्चे रोते होंगे। एक बात और है कि घर वालों की सेवा करना मोक्ष के अनुकूल कार्य है, तो इस सेवा को छोड़कर इस रात को यों भटकना स्त्रियों के लिये यह ठीक नहीं। स्त्रियों को तो अपने पति की सेवा करनी चाहिये। कोई कैसा भी क्यों न हो। यह साधन-धर्म है, ऐसा कहा। तो तुमको वहाँ जाना चाहिये और मैं यह भी जानता हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करती हो, तो प्रेम के लिये यह आवश्यक नहीं है कि पास आया जाय। श्रवण, मनन, दर्शन, ध्यान इनसे प्रेम तो खूब बढ़ता है चाहे पास न हो। इसलिये तुम जाओ और अपने सनातन सदाचार का पालन करो। इधर-उधर भटको मत। इस प्रकार से भगवान ने समझाया। यह शिक्षा बड़े काम की है परन्तु यह शिक्षा गोपियों के लिये नहीं है। इनमें न जड़ शरीर था और न ही प्राकृतिक अंग संग था; न इसके सम्बन्ध में कोई प्राकृतिक बात थी, न स्थूल कल्पनाएँ थी। यह था चिदानन्द भगवान का दिव्य विहार जो दिव्य लीलाधाम में सर्वथा होते हुए भी यहाँ कभी-कभी प्रकट होता है।

भगवानपि ता रात्रीः शारदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्यं रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।

शुकदेव जी कहते हैं कि ऐश्वर्य, वीर्य आदि षडविध महाशक्ति निकेतन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण मल्लिकादि विविध शारदीय कुसुमविकास से परिशोभित रात्रि को देखकर अपनी अचिन्त्य महाशक्ति को प्रकट करते हैं और गोपरमणियों के साथ रमण करने की इच्छा करते हैं- यह श्लोक का अर्थ है। इसमें श्रीमद्भागवत की रासपञ्चाध्यायी पर विचार करते समय यह मिलता है कि वे साक्षात मन्मथमन्मथ हैं और आत्माराम हैं। अतएव जो मन्मथ के भी मन्मथ हैं उनका कामासक्त होना संभव नहीं और जो आत्माराम हैं उनको रमण के लिये गोपियों के साथ मिलने का कोई प्रयोजन नहीं। किन्तु तो भी शत्-शत् कोटि गोप रमणियों के साथ रासक्रीडा उन्होंने की है। इससे ऐसा मालूम होता है कि यह काम विजय की घोषणा है, श्रीधर स्वामी ने काम विजय की घोषणा का ही अर्थ लिया है। परन्तु ऐसा मालूम होता है कि काम का यहाँ लेश ही नहीं है। भगवान के इस राज्य में काम का प्रवेश ही नहीं है। वह तो मन्मथमन्मथ हैं। रासलीला में भगवान के प्रवृत्ति के आवरण में भगवान ने परानिवृत्ति की क्रीडा की है और उसका अधिकांश तत्त्व ‘भगवानपि ता रात्रीः’ इत्यादि श्लोक के पहले चरण में छिपा हुआ है। अब इस पर कुछ विचार करना चाहिये।

भगवान ने रमण करने की इच्छा की। ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ यही श्लोक का मूल प्रतिपाद्य है। इसको समझने के लिये पहले दो पदों को समझना है- भगवान और रमण। विष्णु पुराण में भगवत शब्द का अर्थ कहते हुए यह बताया गया है कि-

यत्तदव्यक्तमजरमचिन्त्यमजमव्ययम्।
अनिर्देश्यमरूपं च पाणिपादाद्यसंयुतम्।
विभुं सर्वगतं नित्यं भूतयोनिरकारणम्।
व्याप्यव्याप्तं यतः सर्व यद्वै पश्यन्ति सूरयः।
तद्ब्रह्म तत् परं धाम तद्ध्येयं मोक्षकांक्षिभिः।
श्रुतिवाक्योदितं सूक्ष्मं तद् विष्णोः परमं पद्म्।
क्रमश:

Comments

Popular posts from this blog

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1

65