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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

बच्चे बड़े प्यारे होते हैं। कोई-कोई बच्चों को दूध पिला रही थीं- ‘शिशून् पयः पाययन्त्यः’- शिशुओं को दूध पिलाती हुई भी छोड़कर दौड़ गयीं। शिशु रोते रहे और
‘काश्चितद् पतीन् शुश्रूषन्त्यः’- कुछ अपने पतियों की सेवा कर रही थीं। वे भी दौड़ गयीं। अब इसका उल्टा अर्थ जो ले लेगा वह धूल में जायेगा। यहाँ लौकिक अर्थ नहीं है। यह परम उच्च साधना की बात है। जहाँ जगत नहीं रहता है। इसलिये इसमें आगे बात आयी है। रासपञ्चाध्यायी पढ़े तो समझ में आयेगा कि भगवान ने पतियों की बात याद दिलायी जो साधारण स्त्रियों के लिये होती है। कुछ गोपियाँ खाना खा रही थीं। इतना स्वार्थ होता है कि आदमी सोचता कि खा लें तो चलें।
‘अश्नन्त्यं भोजनं अपास्य’ - कई भोजन कर रही थीं। थाली पड़ी रही वहीं पर।

‘अन्याः लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्यः- कुछ अंगराग लगा रही थीं और कुछ उबटन लगाकर नहा रही थीं और कुछ उबटन लगा चुकी थीं और नहाना था उनका उबटन लगा ही रह गया और छोड़कर चल दीं।कुछ नेत्रों में अन्जन लगा रही थीं- ‘काश्च लोचने अञ्जन्त्यः’ - एक आँख में काजल लगा लीं और दूसरे में वैसे ही रह गया, छूट गय।

‘काश्चित् व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः कृष्णान्तिकं ययुः’ पहन रही थीं चोली और सोचा कि ओढ़नी है तो उसको सिर पर डाल लिया। उलटे कपड़े पहन लिये और हाथ का गहना पैर में पहन लिया। कान का गहना अंगुली में डाल लिया। पता ही नहीं रहा कि यह गहना क्या है? बस! उलटे-सीधे कपड़े पहन लिये। विचित्र श्रृंगार हो गया। जहाँ तक अपना श्रृंगार दीखता है, श्रृंगार करें वहाँ तक श्रृंगार का दासत्त्व है, श्रृंगार की गुलामी है और वहाँ जब भगवान का आह्वान होता है तो यहाँ के श्रृंगार का फिर वहाँ पर कोई मूल्य नहीं रहता है। यह सारा श्रृंगार बिगड़कर वहाँ का श्रृंगार बनता है।इनके लिये एक शब्द और आया है? वह शब्द है, वैसा ही है-

‘गोविन्दापहृतात्मानाः’ गोविन्द ने इनके अन्तःकरण का हरण कर लिया था। यह कभी सौभाग्य हो कि हमारे मन को भी भगवान हरण कर ले, चुरा लें। वे क्यों चुरा लें? यहाँ बस यही एक समझने की बात है। हम यह कामना करें, इच्छा करें कि हमारा मन गोविन्द ले जाये। जब तुम गोविन्द के लिये मन को ख़ाली कर रखोगे। उसमें भरा हुआ बोझा कौन उठा कर ले जाय? हम तो मन को हरण करके ले जायेंगे। चोरी करके ले जायेंगे। पर तुम अपने मन को जगत से तो ख़ाली करो। उसमें कूड़ा करकट भर रखे हो तो उसे निकाल दो। तब गोविन्द हर कर ले जायेंगे। गोपियों ने सब कुछ अपने मन से निकाल दिया। इसलिये उनके मन को गोविन्द हर कर ले गये। ‘गोविन्दापहृतात्मानाः’ ‘कृष्णगृहीतमानसाः’, ‘समुत्सुकाः’ ये इनके नाम हैं।

इसी परम त्याग की परम ऊँची जो समर्पण की लीला है उनमें आपस में ही। दूसरे और कोई नहीं है। यह ख़ाली लोगों को दिखाने के लिये दो बने हैं लेकिन हैं एक ही। कृष्ण अपने आप ही लीला करते हैं पर यह दिखलाया है इसमें कि कितना ऊँचे-से-ऊँचा त्याग होना चाहिये। जो भगवान की ओर जाना चाहता है उस साधक में।

यह उल्टी बात है कि लोग देखते हैं कि इसमें भोग ही भोग है पर इसमें तो केवल त्याग ही त्याग है। इसमें कहीं भोग है ही नहीं। यह तो इसी त्याग से ही आरम्भ होता है और त्याग में इसकी पराकाष्ठा है। जब सारा-का-सारा त्याग हो करके श्रीकृष्ण के सुख में जाकर विलीन हो गया। उनका जीवन, उनकी क्रिया, उनके सारे काम, उनकी कुल-चेष्टायें श्रीकृष्ण में जाकर विलीन हो गयीं। इस प्रकार का था इनका त्यागमय जीवन।

तीन बात करनी होगी अगर किसी को गोपी बनना हो तब। साड़ी, लहँगा नहीं मँगाना है। हम सब गोपी बन सकते हैं।

अपने मन से जगत को निकाल देना।
भगवान को देने के लिये मन को तैयार कर देना।
किसी भी कारण से, किसी भी हेतु को लेकर कहीं पर भी अटकने की भावना न करना।
जहाँ तक हमारे मन में हमारे विषय भरे हैं, जहाँ तक विषयों को निकाल करके भी अगर हम ज्ञान-विज्ञान की ओर जाते हैं तो भगवान को अपना मन देना नहीं चाहते हैं। वहाँ भी भगवान मन नहीं लेते हैं। मन अमन हो जाता है, मन मर जाता है, मिट जाता है पर मन भगवान का नहीं होता है और तीसरी बात जो सबके लिये आवश्यक है- अटकना। यह अटकना गोपी में नहीं है। ये कहीं भी अटकी नहीं। न गहनों ने अटकाया, न कपड़ों ने अटकाया, न भोजन ने अटकाया, न घरवालों ने अटकाया। एक का अटकाया वह पहले पहुँच गयी।

अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः।
कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः।

किसी को रोका तो वह पहले पहुँच गयी। प्राणों को देकर पहुँच गयी। मतलब यह है कि यह आज की जो शरदपूर्णिमा की रात्रि है यह ऊँची बातों को छोड़ दें बस, इतनी बात कि यह साधना के लिये बड़े ऊँचे आदर्श को बतलाने वाली रात्रि है। इन दिन साधना की परिपूर्णता का जो परमफल होता है यह प्राप्त किया श्रीगोपांगनाओं ने।

बड़ी विलक्षण बात इसमें यह है जो पहले कही थी कि गोपियों ने अपने हृदय में उस विशुद्ध प्रेमामृत को भर रखा था कि उस प्रेमामृत की आकांक्षा भगवान को हो गयी। उन निष्काम में, परम अकाम में, पूर्णकाम में उस पवित्र मधुर प्रेम-रसास्वादन की इच्छा उत्पन्न हो गयी। भगवान को सुख देने गयीं, सुख लेने नहीं। यही साद है। जहाँ तक हम भगवान के द्वारा सुख चाहते हैं वहाँ तक हम भगवान के भक्त नहीं है। एक प्रेमी ही ऐसा है और कोई ऐसा नहीं है- बड़े-बड़े भक्त भी भगवान से सुख चाहते हैं कि भाई! हम समीप ही रहें आपके। आपके लोक को प्राप्त कर लें।

सालोक्य, सारुप्य, सामीप्य, साष्टि- यह बस प्राप्त कर लें। दर्शन दे दें हमको। ये बाबा कहते हैं कि यदि दर्शन देने से तुमको सुख न होता हो तो दर्शन मत दो। भोग की तो बात ही नहीं। तुम्हारे दर्शन भी यदि तुम्हें सुखकर न हो तो हमें नहीं चाहिये। हमें चाहिये केवल तुम्हारा सुख।
क्रमश:

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