3

3-
श्रीरास पंचाध्यायी- हनुमानप्रसाद पोद्दार

भगवान आते हैं और हमारे मन को खुला नहीं देखते हैं, भगवान आते हैं पर हमारे मन को किसी के द्वारा पकड़ा हुआ देखते हैं, हमारे मन में किसी को बैठा देखते हैं। भगवान देखते हैं कि भाई इसका मन तो ख़ाली नहीं। इसका मन तो खुला नहीं और लौट जाते हैं।

इसलिये मन को गोपियों ने खुला छोड़ दिया। सब चीजों से मन को खोल दिया। मन के जितने संसार के बन्धन थे वह त्याग दिये, काट दिये। ‘मदर्थे त्यक्त दैहिकाः’ तब क्या हुआ कि जब मन इनका ऐसा हो गया कि जिसमें संसार रहा नहीं तो भगवान ने आकर पकड़ लिया और फिर गोपियों के मन को अपने मन में ले गये और उनके मन को अपने मन में बैठा दिया। ‘ता मनमनस्काः’ का यही अर्थ है कि गोपियों का अपना मन था नहीं और उनके मन में श्रीकृष्ण का मन आ बैठा। उनका मन कहाँ गया? ‘कृष्णगृहीतमानसाः।’

गोपी भाव की जब हम बात करें तो सबसे पहले यह सोचना चाहिये कि हमारा मन संसार से मुक्त होकर ख़ाली होकर भगवान के द्वारा पकड़ा जा चुका है कि नहीं। भगवान ने हमारे मन को पकड़ लिया है कि नहीं। अगर नहीं पकड़ा है तो हम गोपी नहीं बन सकते हैं।

कृष्णगृहीतमानसाः- उस वेणुगीत को जो भगवान ने गाया वह अनंगवर्धन गीत था। अनंग-प्रेम अर्थात भगवत्प्रेम को बढ़ाने वाला उस गीत को सुना उन लोगों ने जिन श्रीगोपांगनाओं का मन श्रीकृष्ण ने पहले ही ले रखा था। उसे सुनते ही क्या हुआ? कोई धन का अत्यन्त लोभी हो और धन की आवश्यकता हो और उसे पता चल जाय कि अमुक जगह धन पड़ा है और वह जाने से मिल जायेगा। तब वह किसी को साथ नहीं लेगा और कोई सलाह नहीं करेगा। क्योंकि वह तो धन का लोभी है। जहाँ सुनी धन की बात, वहाँ भागा।

इसी प्रकार कहते हैं कि व्रज सुन्दरियाँ जो थीं वे ‘अन्योन्यमलक्षितोद्यमाः’- इन्होंने कहा नहीं कि हम जा रहे हैं और तुम भी चलो। कहा नहीं क्योंकि ये तो कृष्णगृहीतमानसा थीं। वहाँ से आया आह्वान तो बिना किसी से कहे-सुने चल दीं। और चलीं कैसे? धीरे-धीरे नहीं, मौज से नहीं; वे दौड़ीं। अपने आपको रोक नहीं सकीं, ठहर नहीं सकीं। चाल में धीमापन नहीं ला सकीं। दौड़ी जितनी तेजी से दौड़ सकती थीं।

‘जवलोलकुण्डलाः’ यह बताते हैं कि दौड़ने में क्या हुआ। उनके दौड़ने से उनके कानों के कुण्डल सब-के-सब हिलने लगे। यह दौड़ने का चिह्न बताते हैं कि वे जवलोलकुण्डला दौड़ीं अर्थात जोर से दौड़ी कि उनके कानों के कुण्डल हिलने लगे। असल में वही आभूषण हैं जो भगवान से मिलने के लिये हिलते हैं। नहीं तो यह जड़ है, पत्थर है, उसमें रखा क्या है? वे गयीं और पहुँच गयीं।

‘आजाग्मुः यत्र स कान्तः’- जहाँ पर वह कान्त-स्वामी-प्रियतम थे। प्रियतम एक भगवान ही हैं और संसार में कोई प्रियतम, कान्त आदि है नहीं। हम लोगों ने न जाने किस-किसको कान्त बना रखा है। स्त्रियों के ही नहीं, पुरुषों के भी कान्त होते हैं।

गोपियाँ असली कान्त के पास जा पहुँचीं। ये एक-एक अलग-अलग गयीं। प्रश्न हुआ कि ये घर के काम सहेज करके गयी होंगी कि वैसे ही गयीं। आप कहते हैं कि ऐसे ही भाग गयीं तो कैसे ऐसे भाग गयीं। कहा कि ये कृष्णगृहीतमानसा थीं। मुरली की ध्वनि सुनते ही भागीं। भागी क्यों?

समुत्सुकाः- वे श्रीकृष्ण से मिलने के लिये उत्सुक थीं। यही साधक का रूप होता है। यह जो उनके विशेषण हैं- ‘कृष्णगृहीतमानसाः, समुत्सुकाः’- यह बताते हैं उनकी स्थिति को। समुत्सुकाः- ये उतनी उत्सुक थीं भगवान से मिलने के लिये कि जहाँ मिलने की बात किसी भी रूप में आयी कि उनको और कुछ सूझा ही नहीं। क्या किया? अब स्थिति बताते हैं- ‘काश्चित् दुहन्त्यः दोहं हित्वा’।

कुछ गोपियाँ गाय दुह रही थी। थन हाथ में, दूध दुह रही हैं, नीचे बर्तन रखा है और मुरली की ध्वनि कान में आयी तो ‘कृष्णगृहीतमानसाः, समुत्सुकाः’ जो थीं वह सब दुहना छोड़कर के भागीं। कहाँ भागी? जिधर से वह वेणुनाद आया था। उस वेणुनाद की ओर लक्ष्य करके वे भागीं। यह थी दुहने वालों की दशा और कुछ गोपियाँ दूध दुह लायी थीं तो उन्होंने दूध को चूल्हे पर रख दिया था औटाने के लिये और जहाँ यह आवाह्न आया तो अब औटाये कौन? जैसे वह दुहना छोड़कर भागीं वैसे ही ये भी भागीं चाहे दूध चूल्हे पर उफनकर गिर जाय।

यह जब तक जगत की स्मृति रहती है तब तक हम भगवान का आह्वान नहीं सुनते। ज्योंही भगवान का आह्वान सुना तो सुनते ही जगत की स्मृति को भूल गया। साधना का यह ऊँचा स्तर है। जगत को याद रखते हुए हम जो भगवान की ओर जाते हैं तो हम भगवान की ओर नहीं जाते बल्कि हम जगत में रमते हैं भगवान का नाम लेकर। उसी जगत में रमते हैं क्योंकि उसी को स्मृति में रखते हैं। जहाँ भगवान का आह्वान सुनायी दिया तो जगत भूल गया। दूध दुहती हुई गोपियाँ दुहना भूल गयीं और दूध भूल गयीं चूल्हे पर। कुछ गोपियाँ और काम कर रही थीं। कुछ हलवा बना रही थीं अपने घर वालों के लिये, उसको उतारे बिना ही चल दीं। उतारने का होश रहता तब न उतारतीं। बिना उतारे ही भाग गयीं। यह साधक की स्थिति होती है।

जब भगवान का आह्वान साधक सुनता है तो वह जगत की ओर नहीं देखता। बुद्ध ने नहीं देखा; जो प्रेम के साधक रहे। जरा-सा एक बार पुत्र की ओर देखा फिर मुँह मोड़ लिये, भाग गये। इस प्रकार से हलवे को चूल्हे से उतारे बिना ही भाग गयीं। बोले - यह तो अपना काम था, कोई दूसरे का काम कर रहीं हो तो?

‘परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा’ - जो घरवालों को भोजन परोस रही थीं वे ऐसा कैसे कर सकती थीं? सभ्यता होती कि परोसने का काम पूरा करके जा सकती थीं पर पूरा करे कौन? सब ‘कृष्णगृहीतमानसाः’ और ‘समुत्सुका’ थी। वह तो दूसरा काम पूरा करने के लिये चलीं। खैर, यह कोई बात नहीं।
क्रमश:

Comments

Popular posts from this blog

12

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1