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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

गोपियों की दृष्टि में है केवल चिदानन्दस्वरूप प्रेमास्पद श्रीकृष्ण, बस, उनके हृदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत आ गया है। यही उनके हृदय में छलकता रहता है। इसीलिये श्रीकृष्ण उनके हृदय के प्रेमामृत का रसास्वादन करने के लिये लालायित होते हैं, लालायित रहते हैं। इसीलिये श्रीकृष्ण ने मन की रचना की। इसीलिये उन्होंने गोपांगनाओं का आवाहन किया। इसीलिये इन शरद की रात्रियों को उन्होंने चुना और उनको बुलाया। यहाँ पर यह कल्पना नहीं करनी चाहिये कि यहाँ पर कोई जड़ देह है। यहाँ पर गोपियों को पहचानना चाहिये।

शास्त्रों में आता है- औरों की बात छोड़ दीजिये, ब्रह्मा, शंकर, उद्धव, नारद और अर्जुन ऐसे-ऐसे लोगों ने गोपियों की उपासना करके और गोपी भाव की थोड़ी सी लीला देखने के लिये वरदान प्राप्त किया और अनुसूया, सावित्री इत्यादि देवियाँ जो हैं, महान पतिव्रता, ये गोपियों की चरणधूलि की उपासिका हैं। वो कितना बड़ा कि एक मात्र श्रीकृष्ण के अलावा और कोई पति है ही नहीं। इस बात को देखने वाली तो परम पतिव्रता गोपियाँ थीं और कोई था ही नहीं, ऐसा हुआ ही नहीं। यह उससे नीचा भाव है परन्तु इस भाव में भी हम देखें तब हम गोपियों की दिव्य लीला पर विचार कर सकते हैं अन्यथा नहीं।सबसे पहले यह बात ध्यान में रखने की है कि यह भगवान की लीला है। भगवान का सच्चिदानन्दघन शरीर दिव्य है, अजन्मा हैं, अविनाशी है, हानोपादानरहित हैं, सनातन है, शुद्ध है। इसी प्रकार गोपियाँ भी भगवान की स्वरूपभूता श्रीराधा जी की काय-व्यूहरूपा हैं। यह उनकी अन्तरंग शक्तियाँ हैं। इन दोनों का सम्बन्ध भी नित्य और दिव्य है। बस! यह भाव राज्य की लीला स्थूल मन से परे की बात है। इसलिये जब गोपियों का आवरण भंग हुआ तब इस लीला के लिये भगवान ने उनको संकेत दिया, दिव्य रात्रियों का। उसी संकेत के अनुसार भगवान ने इनका आवाहन किया। यहाँ से आरम्भ होता है। बहुत संक्षेप में दो-तीन-चार श्लोकों की बात कह देनी हैं, अधिक नहीं।

यह भगवान का मिलन कब होता है? जब किसी और वस्तु की कल्पना भी मन में नहीं रहती है और भगवान के मिलन के लिये चित्त अत्यन्त आतुर हो जाता है। यह दशा जब होती है और भगवान उसे देखते हैं कि अब यह जरा-सा इशारा पाते ही, जरा-सा संकेत पाते ही सर्वस्व का त्याग तो कर ही चुका है, उस सर्वस्व के त्याग को प्रत्यक्ष करके मेरी ओर आ जायेगा; इस प्रकार की स्थिति जब भगवान देखते हैं तो भगवान मुरली बजाते हैं। भगवान मुरली बजाते हैं और वह मुरली की ध्वनि उन्हीं को सुनायी देती है। मुरली जो बजी उस समय व्रज में, भगवान ने बजायी और वह मुरली जिसकी ध्वनि दिव्य लोकों में पहुँच-पहुँचकर वहाँ के देवताओं को भी स्तम्भित कर देती है, नचा देती है।

उस मुरली की ध्वनि उस दिन-आज के दिन शारदीय रात्रि के दिन औरों ने नहीं सुनी, मुरली बजी, सब जगह बजी परन्तु उस मुरली की ध्वनि किनके कानों में गयी? उनके जिनका हृदय भगवान से मिलने के लिये अत्यन्त उत्तप्त था, आतुर था उनके हृदय में उनके कानों में भगवान की मुरली ध्वनि गयी। मुरली क्या थी? यह भगवान का आवाहन था। उनकी साधना पूर्ण हुई। भगवान ने शारदीय रात्रियों में उनके साथ विहार करने का संकल्प कर लिया तो बस, अब मुरली बजी तो क्या हुआ? यहाँ बड़ी सुन्दर बात लिखी है श्रीमद्भागवत में-

निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः।
यह स्थिति है भगवान के विरही साधक की। बड़ी ऊँची स्थिति है। कहते हैं कि मुरली बजी। मुरली का गीत उन्हें सुनायी दिया। गीत कैसा था? अनंगवर्धन था। यह जितने भी संसार में प्रकृति की चीज हम देखते हैं इसमें कोई अनंग नहीं है। प्रकृति अनंग नहीं है। प्रकृति अंगवाली है और ये अंगवाली कोई चीज इनके मन में रही नहीं। अंगवाली कोई चीज गोपियों के मन में नहीं रही तो वह जो अनंग है-अनंग कौन है? अनंग भगवान हैं, प्रेम है और अनंग है ही नहीं। इस अनंग की, इस प्रेम की वृद्धि करने वाली वेणु की ध्वनि इनके कान में पड़ी।

एक शब्द बड़ा सुन्दर है- ‘कृष्णगृहीतमानसाः’ -जिनके मनों को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था। गोपियों का मन अपने वश में नहीं। ये ‘श्रीकृष्णगृहीतमानसाः’ नहीं होगी न! तो उनको घर के काम से छुट्टी नहीं मिल सकती। जो कृष्णगृहीतमानस नहीं है वह भगवान के आह्वान को नहीं सुन सकता। वह तो घर में फँसा है उसको घर की पुकार सुनायी पड़ती है चारो तरफ से। मुरली की पुकार कहाँ से सुनेंगी। इसलिये यह मुरली की पुकार व्रज में गयी पर उन्हीं व्रजबालाओं ने सुना, घर के लोगों ने सुना। जिनका घर में मन था न! वे कृष्णगृहीतमानस नहीं थे। वहाँ तो घर में ही उनका मानस रम रहा था।

घर ने ही उनके मानस को पकड़ रखा था। तो ये कैसी थी? ये कृष्णगृहीतमानसाः- इनके मन को श्रीकृष्ण ने पहले से ही ले रखा था। क्या करे आदमी कि यह मन जो है इसको खुला छोड़ दे हमने तो खुला छोड़ ही रखा है जहाँ चाहता है वहाँ हमें ले जाता है। यह ऐसे खुला छोड़ना नहीं है। वह तो इसे कृष्ण में इसे लगा कर छोड़ना है। विषयों में लगे हुये मन को खुला छोड़ने का अर्थ क्या है? विषयों से हटाकर खुला छोड़ दे। विषयों से हटकर, विषयों को मन से निकालकर मन को खुला छोड़ दे। जहाँ खुला मन हुआ कि भगवान ले जायेंगे। बिल्कुल सच्ची बात है।
क्रमश:

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