रासपंचादयायी 1

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श्रीरास पंचाध्यायी- हनुमान प्रसाद पोद्दार

आज रास-पूर्णिमा है। ‘रास’ शब्द को सुनकर हम लोग प्रायः जो रासलीला होती है उसी की ओर देखते हैं, दृष्टि वहीं जाती है। वह रासलीला भी उस दिव्य लीला को दिखाने के लिये ही है। इसलिये यह आदरणीय है परन्तु वह जो भगवान का रास है उसको थोड़ा-सा समझ लेना चाहिये। ‘रास’ शब्द का मूल है रस और रस है भगवान का रूप। ‘रसो वै सः।' एक ऐसी दिव्य क्रीडा होती है जिसमें एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रसों का समास्वादन करता है और यह एक ही रस-रस समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद्य, स्वयं ही आस्वादक, लीला, धाम, विभिन्न आलम्बन और उद्दीपन के रूप में प्रकट हो जाता है तथा एक दिव्य लीला होती है उसी का नाम ‘रास’ है।

रास का अर्थ है लीलामय भगवान की लीला और वह लीला है भगवान का स्वरूप। रास भगवान का स्वरूप ही है। इसके सिवाय और कुछ नहीं। भगवान की जो दिव्य लीला है रास की, यह नित्य चलती रहती है और चलती ही रहेगी। इसका कोई ओर-छोर नहीं है। कब से शुरू हुई और कब तक चलती रहेगी यह कोई बता नहीं सकता है। कभी-कभी कुछ बड़े ऊँचे प्रेमी महानुभावों के प्रेमाकर्षण से हमारी इस भूमि में भी रासलीला अवतरण होता है। वह अवतरण भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय हुआ। उसी का वर्णन श्रीमद्भागवत में ‘रास-पंचाध्यायी’ के नाम से है। पाँच अध्यायों में उसका वर्णन है।

इसमें सबसे पहले वंशीध्वनि है। वंशीध्वनि को सुनकर गोपिकाओं का अभिसार है। श्रीकृष्ण से उनका वार्तालाप है। दिव्य रमण है। श्रीराधाजी के साथ श्रीकृष्ण का अन्तर्धान है। पुनः प्राकट्य है। फिर गोपियों के द्वारा दिये हुये वसनासन पर भगवान का विराजना है। गोपियों के कुछ कूट प्रश्नों गूढ़ प्रश्नों का प्रेम प्रश्नों का उत्तर है। फिर रास नृत्य, क्रीड़ा, जलकेलि और वन-विहार है। अन्त में परीक्षित के सन्देहान्वित होने पर बन्द कर दिया जाता है रास का वर्णन।

यह बात सबसे पहले समझ लेनी चाहिये, याद रखने की बात है- इसलिये इस रास-पंचाध्यायी में सबसे पहला शब्द आता है। ‘भगवान।’

‘भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।’
अब ये बाबा (श्रीराधाबाबा) तो बोलते नहीं हैं नहीं तो यह बताते कि ‘शरदोत्फुल्ल-मल्लिकाः’ का अर्थ क्या होता है? हम तो जानते नहीं हैं। भला, शरद ऋतु में मल्लिका कैसी? शरद ऋतु में मल्लिका कहाँ से फूली? और फिर उसके विचित्र भाव हैं, विचित्र अर्थ हैं। यह अनुभव की चीज है। इतनी बात अवश्य जान लेनी चाहिये कि यह जो कुछ है यह भगवान में है, भगवान का है।यह जड़ की सत्ता जो होती है यह जीव की दृष्टि में होती है। भगवान की दृष्टि में जड़ की सत्ता नहीं है। यह देह और देही है,इस प्रकार का जो भेदभाव है यह प्रकृति के राज्य में है, जड राज्य में है। अप्राकृतिक लोक में जहाँ प्रकृति भी चिन्मय है वहाँ सभी कुछ चिन्मय होता है। वहाँ जो अचित्त की प्रतीति होती है कहीं-कहीं वह तो केवल चिद्विलास अथवा भगवान की लीला की सिद्धि के लिये होती है। अचित्त वहाँ कुछ है ही नहीं।

इसलिये होता क्या है कि हमारा जो मस्तिष्क है यह जड़-राज्य में है। हम जीव हैं न! हम जड़-राज्य में प्राकृतिक चीजों को-जड़ को देखते हैं। जब हम कभी किसी अप्राकृत वस्तु का विचार करते हैं जैसे भगवान की दिव्य लीला-प्रसंग, रासलीला इत्यादि। यह सर्वथा अप्राकृत-चिन्मयलीला है परन्तु हम विचार करते हैं काम से, बुद्धि से- जो बुद्धि जड़ में प्रविष्ट है, जो बुद्धि जड को ही देखती है। अपने जड़-राज्य की धारणाओं को, कल्पनाओं को, क्रियाओं को लेकर हम उसी का दिव्य-राज्य में आरोप कर लेते हैं और अपनी सड़ी-गली गन्दी आँखों से हम वही सड़ी-गली गन्दी चीजों को हाड़-मांस के, रक्त के शरीर को जिसमें विष्टा-मूत्र भरा है इसी को कल्पना करते हैं। इस ही को देखते हैं। चिन्मय राज्य में हम प्रवेश नहीं करते हैं। इसीलिये रास में हम लोग स्त्री, स्त्री-पुरुषों के लीला की कल्पना करते हैं पर यह बात ध्यान में रखने की है कि यह परम उज्ज्वल दिव्य रस का प्रकाश है। यह जड़ जगत की बात तो दूर रही, हम यहाँ तक कह दें तो अत्युक्ति नहीं कि ज्ञान या विज्ञानरूप जगत में भी यह प्रकट नहीं होता है। इतना ही नहीं जो साक्षात चिन्मय तत्त्व है उस परम दिव्य चिन्मय तत्त्व में भी उस उज्ज्वल रस का लेशाभाष नहीं रहता है।

इस परम रस की स्फूर्ति तो परम भावमयी श्रीकृष्ण-प्रेमस्वरूपा कृष्णगृहीत मानसा उन श्रीगोपीजनों के मधुर हृदय में होती है और वह गोपी का मधुर हृदय भगवान का ही स्वरूप है। इसलिये इस रासलीला के यथार्थ रूप को और परम माधुर्य को समझने के लिये सबसे पहले यह देखना चाहिये कि यह भगवान की दिव्य चिन्मयी लीला है। गोपियाँ भगवत्स्वरूप हैं, वे चिन्मयी हैं, सच्चिदानन्दमयी हैं। अब यह साधना विधि से भी उन्होंने मानो एक तरह से जड़ शरीर का त्याग कर दिया है। सुख शरीर से प्राप्त होने वाले स्वर्ग और कैवल्य से अनुभव होने वाले मोक्ष इनका भी इन्होंने त्याग कर दिया है। गोपिकाओं की दृष्टि में क्या है? यह बहुत समझने की चीज है। यह साधना की बहुत ऊँची-से-ऊँची चीज है।
क्रमश:

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