भाग 10अध्याय 4
अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ चतुर्थ सर्गः~२
आवासो विपिनायते प्रियसखीमालापि जालायते तापो पि श्र्वसितेन दावादहनज्वालाकलापायते।
सापि त्वद्विरहेण हन्त हरिणीरूपायते हा कथं कन्दर्पो पि यमायते विरचयन् शार्दूलविक्रीडितम्।। १।।
हे माधव ! दुर्भाग्य वश जैसे हरिणी सिंह से डरकर जलते हुए वन में प्रवेश कर जाल में बंध जाती है, उसी भाँति राधाजी इस समय आपके विरह से हरिणी के सदृश हो गयीं हैं। उनका निवास स्थान ज्वलित वन के तुल्य, सब सखियाँ जाल के भाँति हैं, श्र्वाँस ही शरीर को जला रहा है और दुष्ट कामदेव हरिणी रूप राधा के पीछे शार्दूल रूपी यमराज होकर आपके वियोग से उन्हें विकीर्ण कर रहा है।। १।।
देशाख्य एकतालिताले अष्टपदी।
स्तनविनिहितमपि हारमुदारम्
सा मनुते कृशतनुरिव भारम्।।
राधिका तव विरहे केशव !
माधव ! वामन ! विष्णो !।। ध्रु०।। १।।
हे केशव ! हे माधव ! हे वामन ! हे विष्णो ! आपके विरह से व्याकुल वह राधा कृश (दुर्बल) शरीर के स्तनों पर रक्खे हुए उत्तमोत्तम हार को भी भार के समान मानती हैं।। १।।
सरसमसृणमपि मलयजपंकम्।
पश्यति विषमिव वपुषि सशंकम्।। राधिका०।।२।।
हे माधव ! आपके विरह से दुःखित वह राधा मलयागिरी के ओदे (गीले) चन्दन को भी विषवत् मानती हैं।। २।।
श्र्वसितपवनमनुपमपरिहारणम्।
मदनदहनमिव वहति सदाहम्।। राधिका०।। ३।।
हे कृष्ण ! वह राधा अत्यन्त लम्बी श्र्वासों को आपके विरह में कामाग्नि के समान धारण करती हैं। अभिप्राय यह है कि उन्हें वह श्र्वासें भी जलाये देती हैं।। ३।।
दिशि दिशी किरति सजलकणजालम्।
नयननलिनमिव विगलितनालम्।। राधिका०।। ४।।
हे माधव ! राधाजी के कमलनयन मृणाल से रहित भरे कमल की भाँति चारों ओर देखकर अश्रुपात करते हैं।। ४।।
नयनविषयमपि किसलयतल्पम्।
कलयति विहितहुताशविकल्पम्।। राधिका०।। ५।।
हे केशव ! वह राधा आपके वियोग में देखती हुई भी पल्लवों से बनी शय्या को सन्देह वश अग्नि के समान मानती हैं।। ५।।
त्यजति न पाणितलेन कपोलम्।
बालशशिनमिव सायमलोलम्।। राधिका०।। ६।।
हे कुञ्जबिहारी ! वह राधा कपोल पर हथेली रखकर बैठी हैं और उसका मुख सांयकाल के बालचन्द्र की भाँति दिखता है।। ६।।
हरिरिति हरिरिति जपति सकामम्।
विरहविहितमरणेव निकिमम्।। राधिका०।। ७।।
हे श्रीकृष्णचन्द्रजी ! वह राधा आपके वियोग से अपने मरण का निश्र्चय करके हरि-हरि नाम का जपती हैं अभिप्राय यह है कि अपना अन्त समय जान भगवद्-भजन करती हैं।। ७।।
श्रीजयदेवभणितमिति गीतम् ।
सुखयतु केशवपदमुपनीतम्।। राधिका०।। ८।।
यह श्रीराधा के विरह का वर्णन श्रीजयदेव कवि रचित श्रीकृष्ण भक्त्तों को केशवपद् प्राप्त करने वाला है।। ८।।
इति श्रीगीतगोविन्दे नवमः प्रबन्धः।
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