भाग 9 अध्याय 4

अथ श्री गीतगोविन्दम्
अथ   चतुर्थः   सर्गः
यमुनातीरवानीरनिकुञ्जे मन्दमास्थितम्।
प्राह प्रेमभरोद्भ्रान्तं माधवं राधिकासखी।। १।।
श्रीयमुना नदी के तीर बेंतों के कुञ्ज में राधाजी के प्रेम से उन्मत्त चुपचाप बैठे हुए हरि के प्रति राधाजी की कोई प्रिय सखी जाकर यह प्रिय
वचन बोली।। १।।
कर्नाटकरागे एकतालिताले अष्टपदी।। ८।।
निन्दति चन्दनमिन्दुकिरणमनु विन्दति खेदमधीरम्
व्यालनिलयमिलनेन गरलमिव कलयति मलय-समीरम्।
माधव मनसिज-विशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना सा विरहे तव दीना।। ध्रु०।। १।।
हे माधव ! आपके विरह से व्याकुल कामदेव के प्रहार से आपही  लीन राधा चन्दन और चन्द्रकिरण से भी हृदय शीतल न होने के कारण मलयागिरि की वायु को भी विष समान मानती हैं अर्थात् उक्त्त पदार्थों से भी श्रीराधा के चित्त को शान्ति नहीं मिलती, कारण कि वह (श्रीराधा) आपके वियोग जनित दुःख से दुःखित हैं।। १।।
अविरलनिपतितमदनशरादिव भवदवनाय विशालम्।
स्वहृदयमनमर्मणि वर्म करोति सजलधलिनीदलजालम् सा विरहे तव दीना।। २।।
हे कृष्ण ! राधिका काम के बाण से अत्यन्त आतुर हो रही है। जलते हृदय में स्थित आपकी मोहिनी मूर्तिको बचाने के लिए जल से भिगोये कमल के पत्तों से राधाजी ने अपने हृदय को ढँक रक्खा है।। २।।
कुसुमविशिखशरतल्पमनल्पविलासकलाकमनीयम्।
व्रतमिव तवपरिरम्भसुखाय करोति कुसुमशयनीयम्।। सा विरहे०।। ३।।
हे हरि ! वह राधा आपसे मिलने के हेतु कामदेव के बाणों के प्रहार से शरशय्या पर पड़ी हैं, अर्थात् आपसे मिलने के लिए शरशय्याव्रत कर रही हैं।। ३।।
वहति च चलितविलोचनजलधरमाननकमल मुदारम्।
विधुमिव विकटविधुंतुददंतदलगलितामृतधारम्।। सा विरहे०।। ४।।
बहती जलधारा वाले लोचनों से अलंकृत राधा का सुन्दर मुख ऐसा मालुम पड़ता है जैसे राहू के भयंकर दाँतों से काट लिए जाने के कारण बहती अमृत धारा वाले चन्द्रमा का सुन्दर बिम्ब हो।। ४।।
विलखति रहसि कुरंगमदेन भवन्तमसमशरभूतम्।
प्रणमति मकरमधो विनिधाय करे च शरं नवचूतम्।। सा विरहे०।। ५।।
हे हरि ! वह राधा एकान्त में स्थित होकर आपकी मूर्ति को कामदेव के रूप में चित्रित करती हैं और आपकी मूर्ति के नीचे मकर को और आपके हाथ में आम्र रूपी कामदेव केबाण को देखकर प्रणाम करती हैं।। ५।।
प्रतिपदमिदमपि निगदति माधव ! तव चरणे पतिताहम्।
त्वयि विमुखे मयि सपदि सुधानिधिरपि तनुते तनुदाहम्।। सा विरहे०।। ६।।
और नम्र होकर राधा यह कहती हैं कि हे माधव ! मैं तुम्हारे चरण-कमल में पतित होकर प्रार्थना करती हूँ कि तुम्हारे वियोग होने पर आज सुधानिधि यह चन्द्रमा भी मेरे शरीर को दग्ध कर रहा है।। ६।।
ध्यानलयेन पुरः परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापम्।
विलपति हसति विषीदति रोदिति चंचति मुञ्चति तापम्।। सा विरहे०।। ७।।
हे कुञ्जविहारी ! राधाजी किसी-किसी समय आपके स्वरूप का ध्यान करके  और आपकी मनोहर मूर्ति को प्रत्यक्ष की भाँति देखकर अत्यन्त विलाप करती हैं और कभी आपको देखकर हँसा करती हैं, किसी समय आपके वियोगजनित दुःख से अत्यन्त रुदन करती हैं और आपसे मिलने के लिए निकुञ्ज में इधर-उधर बावली की भाँति घूमा करती हैं। किसी समय आपके ध्यान में मग्न होकर आपकी नटवर मूर्ति के साथ विलाप कर आनन्द को भी प्राप्त होती हैं, अर्थात् इसी व्याज से चिन्तारूपी ताप को दूर करती हैं।। ७।।
श्रीजयदेवभणितमिदमधिकं यदि मनसा नटनीयम्।
हरिविरहाकुलवल्लवयुवतिसखीवचनं पठनीयम्।। सा विरहे०।। ८।।
हे प्यारे भक्त्तों ! यदि अपने अन्तःकरण को आनन्द से मग्न किया चाहो तो इस जयदेव  रचित राधा-वियोग के गीत का पाठ करो।। ८।।
आगे का दूसरा भाग कल~

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