भाग 8 अध्याय 3

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ   तृतीय   सर्ग:             भ्रूपल्लवं धनुरपांगतरंगितानि बाणागुण: श्रवणपालिरिति स्मरेण।
तस्यामनंगजयजंगमदेवतायामस्त्राणि निर्जितजगन्ति किमर्पितानि।। १।।
समस्त संसार को जीतने के बाद अपने विजयी अस्त्रों को कामदेव ने अपनी साक्षात् विजय देवता राधाजी में रख दिया है। श्रीकृष्णचन्द्र कहते हैं कि सचमुच राधाजी की भौंहें ही धनुष, कटाक्ष की परम्परा ही बाण तथा कर्ण देश ही प्रत्यञ्चा है।। १।।
हृदि विसलताहारो नायं भुजग्ङमनायकः कुवलयदलश्रेणी कण्ठे न सा गरलद्युति: मलयजरजो नेदं भस्मप्रियारहिते मयि प्रहर न हरभ्रांत्यानग्ङ क्रुधा किमु धावसि।। २।।
इतने पर श्रीकृष्णचन्द्र कहते हैं कि ऐ कामदेव ! तू मुझे शंकर समझकर  बदला लेने के लिये क्रोधपूर्वक क्यों दौड़ रहा है। मेरे हृदय पर शान्ति के लिए रखे हुए मृणाल को सर्प न समझ, मेरे हृदय में ठंडक के लिए पड़ी नीलकमल की पंक्ति को विष का चिन्ह मत समझ। मैं इस समय विरही हूँ ,विरह सन्ताप की शान्ति के लिये लगे हुए चन्दन को शंकर की विभूति न जान।। २।।
पाणौ मा कुरु चूतसायकममुं मा चापमारोपय क्रीडानिर्जितविश्र्वमूर्छितजनाघातेन किं पौरुषम्।
तस्या एव मृगीदृशो मनसिज प्रेख्ङत्कटाक्षाशुगश्रेणीजर्जरितं मनागपि मनो नाद्यापि संधुक्षते।। ३।।
हे क्रीडा से ही समस्त भारत को जीतने वाले ! इस आम्र पुष्प रूपी बाण को हाथ में लेकर धनुष मत चढ़ाओ; क्योंकि मुर्छा को प्राप्त हुए मेरे सदृश जन की पीड़ा से तेरा क्या पुरुषार्थ होगा ? कुछ भी नहीं। कारण कि उस मृगनयनी राधाजी के चलाये हुए कटाक्ष रूपी बाणों की ज्वाला से टुकड़े-टुकड़े हुआ मेरा मन अब तक कुछ भी जीवन को धारण नहीं करता, इसलिए असावधान पर प्रहार करना धर्म के विरुद्ध है।। ३।।
भ्रूचापे निहित: कटाक्षविशिखो निर्मातु मर्मव्यथां श्यामात्मा कुटिल: करोतु कबरी भारो पि मारोद्यमम्।
मोहं तावदयां च तन्वि! तनुतां बिम्बाधरो रागवान् सदूवृत्तस्तन-मण्डलं तव कथं प्राणैर्ममक्रीडति।। ४।।
श्रीकृष्णचन्द्र निज मन में स्थित राधा के प्रति अपना दु:ख वर्णन करते हैं। हे राधे ! भृकुटी रूपी धनुष पर बाण चढ़ा हुआ कटाक्ष रूपी बाण मेरे मन का भेदन करे तो अच्छा है। श्यामवर्ण कुटिल केशों का समूह भी कामदेव को बढ़ावे तो बढ़ावे कारण कि जो भीतर से कुटिल हैं वे दूसरे को मारने का अवश्य ही यत्न करते हैं। यह राग पूर्ण रक्तवर्ण बिम्बाधर अधरोष्ठ मेरे राग का विस्तार करे तो करे कारण कि राग वाला मोह को उत्पन्न करता ही है, परन्तु यह गोल तेरे दोनों स्तनों के मण्डल मेरे प्राणों के साथ क्यों क्रीडा करते हैं कारण कि जो सिधु भाव युक्त सदाचारी होते हैं वे दूसरों के प्राणों के घातक कदापि नहीं होते।। ४।।
तानि स्पर्शसुखानि ते च तरला: स्निग्धा दृशोविभ्रमास्तद्वक्त्राम्बुजसौरभं स च सुधास्यंदी गिरांवक्रिमा।
सा बिम्बाधरमाधुरीति विषयासंगे पि चेन्मानसं तस्या लग्नसमाधि हंत विरहव्याधि: कथं वर्धते।। ५।।
हे राधे ! मैं तो कभी तुम्हारा स्पर्श करता हूँ व कभी तुम्हारे सुन्दर मुख का और कभी तुम्हारे चञ्चल नेत्रों का दर्शन करता हूँ व कभी तुम्हारे मुख कमल की सुगन्धि को सूँघता हूँ, कभी तुम्हारे मधुर मुस्कान युक्त प्रिय वचन को श्रवण करता हूँ। कभी तुम्हारे बिंबाधर अधरोष्ठों की सुन्दरता का दर्शन किया करता हूँ, इतने पर भी हे प्रिय राधे ! मेरी विरह रूपी पीड़ा क्यों शान्त नहीं होती ? यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ध्यान से युक्त योगियों की तो व्याधि का नाश हो जाता है। पर मेरी व्याधि का नाश नहीं होता ?।। ५ ।।
तिर्यक्कंठविलोलमौलितरलोत्तंसस्य वंशोच्चरद् दीप्तिस्थानकृतावधानललनालक्षैर्न संलक्षिताः।
संमुग्धो मधूसूदनस्य मधुरे राधामुखेन्दौ सुधासारेकंदलिताश्र्चिरं दधतु वः क्षेमं कटाक्षोर्मयः।। ६।।
इति श्रीगीतगोविन्दे मुग्धमधुसूदनो नाम तृतीयः सर्गः ।। ३।।
श्रीराधाजी चन्द्रवत मुख पर श्रीकृष्ण के कटाक्षपात के हेतु कण्ठदेश टेढ़ा हुआ था। शिर के भूषण भी हिल गये थे। माधवजी की वंशी के गीत को सुनने में एकाग्रचित्त होने के कारण गोपी ने अनुभव नहीं किया था। श्रीजयदेव कहते हैं कि इस प्रकार मधुसूदन के कृपा कटाक्ष रूपी तरंग आप भक्त्तों को बहुत काल तक कल्याणप्रद होवें।। ६।।
इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये तृतीयः सर्गः।। ३।।

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