भाग 7अध्याय 3

अथ श्री गीतगोविन्दम् 
  अथ   तृतीय   सर्ग:
कंसारिरपि संसारवासनाबन्धश्रृख्ङलाम्।
राधामाधाय हृदये तत्याज ब्रजसुन्दरी:।। १।।
श्रीकृष्णचन्द्रजी ने सांसारिक को बाँधने की श्रृंखला श्रीराधाजी को मन में स्थिर करके अन्य ब्रजसुन्दरियों का त्याग कर दिया।। १।।
इतस्ततस्तामनुसृत्य राधिकामनंगबाणव्रणखिन्नमानस:।
कृतानुस्ताप: स कलिन्दनन्दिनीतटान्तकुञ्जे विषसाद माधव:।। २।।
कामदेव के बाणों से लग गये हैं घाव जिनको, दीन है मन जिनका, किया है अनेक भाँति से पश्र्चाताप, जिन्होंने ऐसे वह श्रीकृष्णजी इधर-उधर वृषभानुनन्दिनी राधिका को ढूँढ कर यमुना के किनारे समीपस्थ कुञ्ज में बैठ गये।। २।।
  गुर्जररागे प्रतिमण्ठताले अष्टपदी।७।
मामियं चलिता विलोक्य वृतं वधूनिचयेन।
सापराधतया मयापि न वारितातिभयेन।
हरिहरि हतादरतया गता सा कुपितेव।। ध्रु०।। १।।
गोपियों के वृनकद से घिरा हुआ मुझे देखकर राधाजी यहाँ से चली गईं और जाते समय मैंने मना भी नहीं किया जिससे नष्ट हुआ है मान जिसका ऐसी वह राधा कोप करके यहाँ से चली गयीं हैं। अहो ! यह मैंने बड़ा ही अपराध किया।। १।।
किं करिष्यति किं वदिष्यति सा चिरं विरहेण।
किं धनेन जनेन किं मम जीवितेन गृहेण।। हरि०।। २।।
और मेरे बहुत काल के विरह से सन्तप्त वह राधा अपने विरह शान्ति के लिये क्या उपाय करेगी और क्या कहेगी ? मुझे इस अन्य गोपीजनों से क्या प्रयोजन है ? जिसके वियोग में मैंने सभी को त्याग दिया है। इस समय धन से, घर से, सुख से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है, यह सब निष्फल है।। २।।
चिन्तयामि तदाननं कुटिलभ्रु कोपभरेण।
शोणपद्ममिवोपरिभ्रमताकुलं भ्रमरेण।। हरि०।। ३।।
क्रोध की अधिकता से कुटिल हैं भृकुटियाँ जिसकी, भ्रमरों से युक्त्त रक्त्त कमल के समान मुख है जिस राधा का ऐसे मुखारविन्द का मैं स्मरण करता हूँ।। ३।।
तामहं हृदि संगतामनिशं भृंशरमयामि।
किं वने$नुसरामि तामिह किं वृथाविलपामि।। हरि०।। ४।।
यह विलाप करते हुए श्रीहरि ने कहा, हे राधे ! तेरी मनोहर मूर्ति मेरे हृदय कमल में सदैव स्थित रहती है और उसी मूर्ति का मैं निरन्तर पूजन किया करता हूँ। इस अखणकड वन में तुझे ढूँढने से मुझे दु:ख मिल रहा है। विलापादि करना भी व्यर्थ ही
है।। ४।।
तन्वि खिन्नमसूयया हृदयंतवाकलयामि।
तन्न वेद्यिकुतो गतासि न तेनत$नुनयामि।। हरि०।। ५।।
हे तन्वि ! कोमलाग्ङि राधे ! मैं आपके हृदय को दु:खी जानता हूँ परन्तु यह नहीं जानता कि तू यहाँ से कहाँ चली गयी है,इसी से तुझे प्रसन्न करने में, मैं असमर्थ हूँ।। ५।।
दृश्यसे पुरतो गतागतमेव मेविदधासि।
किं पुरेव ससंभ्रमं परिरंभणं नददासि।। हरि०।। ६।।
हे वृषभानुनन्दनी ! यदि तू मुझे दिखाई देती है तो फिर पहिले की भाँति मेरे पास आकर वेग से क्यों नहीं आलिग्ङ करती ? (विरही पुरुष सर्वत्र निज प्रिया ही को देखा करते हैं) ।। ६।।
क्षम्यतामपरं कदापि तवेदृशं न करोमि।
देहि सुन्दरि दर्शनं मम मन्मथेन दुनोमि।। हरि०।। ७।।
हे सुन्दरी ! मेरे किये हुए पिछले अपराधों को क्षमा करो । अब मुझसे आपका कोई अपराध न होगा। मुझे दर्शन दो, मैं काम से पीड़ित हूँ।। ७।।
वर्णितं जयदेवकेन हरेरिदं प्रवणेन।
किन्दुबिल्वसमुद्रसं भवरोहिणीरमणेन।। हरि०।। ८।।
किन्दुबिल्वरूपी समुद्र में चन्द्रमा के तुल्य भक्त्ति प्रधान  जयदेव स्वामी रचित श्रीकृष्णजी के परिताप का वर्णन सदैव भक्त्तजनों की तृप्ति करने वाला हो।। ८।।

इति श्रीगीतगोविन्दे सप्तम:प्रबन्ध:।। ७।।

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