भाग 6अध्याय 2
श्रीकृष्णजी, श्रीराधारानी व गोपियों का संवाद~अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ द्वितीय: सर्ग:
हस्तस्रस्तविलासवंशमनृजुभ्रूवल्लिम-
द्वल्लवीवृन्दोत्सारिदृगन्तवीक्षितमति-स्वेदार्द्रगण्डस्थलम्।
मामुद्वीक्ष्य विलज्जितस्मितसुधा-
मुग्धाननं कानने गोविन्दं व्रजसुन्दरी-
गणवृतं पश्यामि हृष्यामि च।। १।।
हे सखि ! जो हरि व्रजबालाओं से घिरे हुए हैं और समस्त बालाएँ छिपे हुए भाव से जिन हरि की ओर कटाक्ष
युक्त्त दृष्टिपात करती हैं, मुझे देख कर जिन श्रीकृष्ण की बंशी गिर जाती है, जिनके कपोल पसीने से गीले हो रहे हैं, इस भाँति वन में केलि
करते हुए उन कन्हैया को देख कर मेरे मन में अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है।। १।।
दुरालोकस्तोकस्तबकनवकाशोकल-तिका विकास: कासारोपवनपवनो पि
व्यथियति ।
अभि भ्राम्यद्भृग्ङीरणितरमणीया न मुकुलप्रसूतिश्र्चूतानां सखि ! शिखरिणीयं सुखयति।। २।।
हे सखि ! मैं अपने दु:ख की कहानी क्या कहूँ, यह नवीन अशोक लता का फूलना, यह सरोवर की शीतल वायु,
मुझे बड़ा ही दु:ख देती है। हे मेरी प्यारी ! यह भ्रमर का राग, आम्र की सुन्दर कलियाँ भी मुझे सुख नहीं देती हैं।। २।।
साकूतस्मितमाकुलाकुलगलद्धम्मि-ल्लासितभ्रूवल्लीकमलीकदर्शितभुजा-
मूलोर्ध्वहस्तस्तनम्।
गोपीनां निभृत निरीक्ष्य गमिता
काङ्क्षश्र्चिरं चिन्तयन्नंतर्मुग्धमनोहरं
हरतु वः क्लेशं नव: केशव:।। ३।।
इति श्रीगीतगोविन्दे अक्लेशकेशवो नाम द्वितीय सर्ग:।। २।।
समस्त गोपियों के हाव-भाव कटाक्ष युक्त्त मुखों को और कामवश से छूटी हुई वेणी को, आनन्द पूर्वक भृकुटियों
को, कटाक्ष एवं स्तनों को देख कर "कन्हैयाजी सब कामनियों में-से राधाजी को श्रेष्ठ अनुमान करके बहुत देर तक उनके सौन्दर्य का ध्यान करने लगे"। "ऐसे मधुर तथा चित्तचोर राधाजी के प्रियतम आनन्द
कन्द श्रीकृष्णचन्द्रजी तुम्हें मंगल
दें" ।। ३।।
इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये भाषाटीकायां द्वितीय: सर्ग:।। २।।
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