भाग 30 अध्याय 12

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ द्वादशः सर्गः।~ तृतीयः ~
अथ सा निर्गतबाधा राधा स्वाधीभर्तृका।
निजगाद रतिक्लान्तं कान्तं मण्डनवाञ्छया।। ९।।
इति सहसा सुप्रीतं सुरतान्ते सा नितान्तखिन्नाग्ङी।
राधा जगाद सादरमिदमानन्देन गोविन्दम्।। १०।।
उसके बाद शान्त काम की बाधा वाली, रति के अन्त में नितान्त खिन्न अंगवाली स्वाधीन भर्तृका वह राधा अपने श्रंगार करने के लिये रतिश्रम शान्त प्रिय कृष्ण से बोली, सम्मानिनि रतिश्रम से थकी वह राधा आनन्द और आदर पूर्वक अपने प्रिय श्रीकृष्ण से बोलीं।। ९-१०।।
रामकरीरागे रुपकताले अष्टपदी।। २४।।
कुरु यदुनन्दन चन्दनशिशिरतरेण करेण पयोधर।
मृगमदपत्रकमत्र मनोभवमग्ङलकलशसहोदरे।।
निजगाद् सा यदुनन्दने क्रीडति हृदयानन्दने।। ध्रुव०।। १।।
हृदय को प्रफुल्लित करने वाले श्रीकृष्ण के साथ क्रीडा करती हुई राधा ने कहा - "हे श्रीकृष्णचन्द्र ! चन्दन के समान अति शीतल अपने हाथों से कामदेव के मंगल कलश की तरह मेरे स्तनों पर कस्तूरी पत्र से रचना कीजिये।। १।।
अलिकुलगञ्जमञ्जनकं रतिनायकसायकमोचने।
त्वदधरचुम्बनलम्बितकज्जल उज्जवलय प्रिय लोचने।। निज०।। २।।
हे प्रिय पीताम्बरधारिन् ! कामदेव के बाणों को छोड़ने वाले, मेरे नेत्रों में भ्रमरों के समूह के समान, आपके अधरों के चुम्बन से मिटे हूए मेरी आँखों के काज्जल को उज्जवल करिये।। २।।
नयनकुरंगतरंगविलासनिरोधकरे श्रुतिमण्डले।
मनसिजपाशविलासधरे शुभवेश निवेशय कुंडले।। निज०।। ३।।
हे प्रियतम ! नेत्ररूपी हरिणी के विलास को रोकने वाले मेरे कानों में कामदेव के पाश के समान कुण्डल पहनाइये।। ३।।
भ्रमरचयं रचयन्तमुपरि रुचिरं सुचिरं मम सम्मुखे।
जितकमले विमले परिकर्मय नर्मजनकमलकं मुखे।। निज०।। ४।।
हे मनोहरवेषधारिन् श्रीकृष्ण ! जिसके ऊपर उड़ रहे हैं भौंरों के समूह ऐसे मनोहर तथा स्वच्छ कमलों को जीतने वाले, आनन्द  को देने वाले मेरे मुख पर गिरने वाले सुन्दर अलकावली को आप गूँथिये।। ४।।
मृगमदरसवलितं ललितं कुरु तिलकमलिकरजनीकरे।
विहितकलंककलं कमलासन विश्रमितश्रयशीकरे।। निज०।। ५।।
हे कमल के समान मुख वाले श्रीकृष्ण ! रति के श्रम से उत्पन्न स्वेदबिन्दु से युक्त्त अर्धचन्द्र के समान मेरे भाल पर कलंक के समान कस्तूरी से सुन्दर तिलक लगाइये।। ५।।
मम रुचिरे चिकुरे कुरु मानद मनसिजध्वजचामरे।
रतिगलिते ललिते कुसुमानि शिखण्डिशिखण्डकडामरे।। निज०।। ६।।
हे मान को देने वाले श्रीकृष्ण ! रति के समय शिथिल हुए मोरपंख के समूह के सदृश सुन्दर कामदेव की पताका के समान मेरे केश पाश में फूल गूँथिये।। ६।।
सरसघने जघने मम शम्बरदारणवारणकन्दरे।
मणिरशनावसनाभरणानि शुभाशय वासय सुन्दरे।। निज०।। ७।।
हे प्राणनाथ ! परमानन्दमय और कमदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी की कन्दरारूपी मेरे सुन्दर जघनों पर आप रत्नों की करधनी, वस्त्र और आभूषण पहिनाइये।। ७।।
श्रीजयदेववचसि शुभदे सदयं हृदयं कुरु मण्डने।
हरिचरणस्मरणामृतनिर्मितकलिकलुषज्वरखण्डने।। ८।।
हे भगवद्भक्त्तो ! भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान रूपी अमृत कलियुगी पापों का नाशक, कल्याणप्रद और अलंकार के समान मनोहर जयदेव कवि द्वारा रचित इस गीत की ओर अपने अन्तःकरण को लगाइये।। ८।।
रचय कुचयः पत्रं चित्रं कुरुष्व कपोलयोर्घटय जघने काञ्चीं मुग्धस्रजा कबरीभरम्।
कलय वलयश्रेणीं पाणौ पदे मणिनूपुराविति निगदितःप प्रीतः पीताम्बरोपि तथाकरोति।। १।।
हे प्राणप्रिय ! आप मेरे स्तनों पर सुन्दर पत्र रचना कीजिये, गालों पर लताबेल आदि की रचना कीजिये, कमर में करधनी पहनाइये, पैरों में पैजेब पहनाइये, इस तरह राधा से कहे गये पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण ने वैसा ही कहा।। ११।।
पर्यक्ङीकृतनागनायकफणाश्रेणीमणीनां गणे सङ्क्रातप्रतिबिम्बसक्ङलनया बिभ्रद्वपुर्विक्रियाम्।
पादाम्भोरुहधारिवारिधिसुता मक्ष्णां दिदृक्षुः शतैः कायव्यूहविचारयन्नुपचिता कूतो हरिः पातु वः।। १२।।
शय्यारूपी शेषनाग के फणमण्डल के मणियों में प्रतिबिम्बित अनेक वेषों को धारण करने वाले, चरण सेवा करने वाली लक्ष्मी को सैकड़ों नेत्रों से देखने की इच्छा रखने वाले काम भाव युक्त्त भगवान् आपकी रक्षा करें।। १२।।
यद्गान्धर्वकलासु कौशलमनुध्यानं च यद्वैष्णवं यच्छृग्ङारविवेकतत्त्वरचनाकाव्येषु लीलायितम्।
तत्सर्व जयदेवपण्डितकवेः कृष्णकतामात्मनः सानन्दः परिशोधयन्तु सुधियः श्रीगीतगोविन्दतः।। १३।।
गानविद्या मे चतुरता है, श्रीकृष्णचन्द्रजी का जो ध्यान है तथा श्रंगार रस के वास्तविक स्वरूप की रचना वाले काव्यों में जो भगवल्लीला का वर्णन है उन सबको, श्रीकृष्ण में एकिग्रचित रहने वाले पण्डित जयदेव कविकृत गीतगोविन्द से सीखें।। १३।।
साध्वी माध्वीकचिन्ता न भवति भवतः शर्करे कर्कशासि द्राक्षे द्रक्ष्यन्ति के त्वाममृत मृतमसि क्षीर नीरं रसस्ते।
माकन्द ! क्रन्द कांताधर धरणितलं गच्छ यच्छान्ति भावं यावच्छृंगारसारस्वतमिह जयदेवस्यविष्वग्वचांसि।। १४।।
जयदेव कवि अपने काव्य की प्रशंसा में कहते हैं - 'इस लोक में जब तक यह श्रगार-रस प्रधान काव्य स्थित है, तब तक हे माध्वीक ! तेरी चिन्ता व्यर्थ है, अर्थात् श्रंगार रस के काव्य की मधुरिमा के सामने तेरी मिठास फीकी है। हे शर्करे ! (शक्कर) तुम इसकी तुलना में कठिं हो। हे द्राक्षे ! तुम्हें इसके सामने कौन देखेगा? हे अमृत ! तुम इसके सामने मृत तुल्य हो। हे क्षीर ! तुम्हारा स्वाद इसके सामने पानी सा है। हे माकन्द ! तुम अब रोओ, हे प्रियतमा के अधर तुम भी पाताल में चले जाओ। अर्थात् मेरे काव्य रस की तुलना में उपर्युक्त्त सभी वस्तुएँ नीरस हैं।। १४।।
श्रीभोजदेवप्रभवस्य राधादेवीसुतश्रीजयदेवकस्य।
पराशरादिप्रियवर्गकण्ठे श्रीगीतगोविन्दकवित्वमस्तु।। १५।।
इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये जयदेवपण्डितकृतौ सुप्रीतपीताम्बरो नाम द्वादशः सर्गः सम्पूर्णं।। १२।।
माता राधादेवी पिता श्रीभोजदेव के पुत्र श्रीजयदेव कवि की यह गीत गोविन्द कविता पराशर आदि पूर्व कवियों के कण्ठ में समर्पित।। १५।।
इति मोरेश्वर शर्मा देशमुख विरचित भाषाटीका अनुवादित गीतगोविन्द काव्य सम्पूर्ण।।

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