भाग 29 अध्याय 12
अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ द्वादशः सर्गः।~द्वितीयः ~
प्रत्यूहः पुलकाकुरेण निबिडाश्लेषे निमेषेण च क्रीडाकूलविलोकित अधरसुधापाने कथाकेलिभिः।
आनन्दाधिगमने मन्मथकलायुद्धेपि यस्मिन्नभूदुद्भूतः स तयोर्बभूव सुरतारम्भः प्रियं भावुकः।। २।।
उन श्रीकृष्ण तथा उनकी मनपरम प्यारी राधा की रतिक्रीड़ा जब आरम्भ हुई, उस समय प्रगाढ़ आलिंगन करते हुए रोमांच का होना विघ्न मालूम होता था, क्रीडा के अभिप्राय से देखने के समय पलक गिरना भी विघ्नभूत लगता था, अधरामृत पान करते हुए केलिकथा भी कष्टदायी प्रतीत होती थी, काम कलापूर्ण समर में उत्पन्न आनन्द भी उस समय सूरतरूपी समर में विघ्न सा ही लगता था।। २।।
दोर्भ्यां संयमितः पयोधरभरेणापीडितः पाणिजैराविद्धो दशनैः क्षताधरपुटः श्रोणीतटेनाहितः।
हस्तेनानमितः कचेअधरमधुस्यन्देन सम्मोहितः कान्तः कामपि तृप्तिमाप तदहो कामस्य वामा गतिः।। ३।।
राधिका के हाथों से बंधे,स्तनों के भार से दबे नखों से क्षत किये गये, दन्तक्षत किए अधर वाले, कटि से ताड़ित केशों को हाथों से पकड़ कर नमाये, अधरों के मधुपान से मोहित श्रीकृष्ण लोकोत्तम आनन्द को प्राप्त हुए। इसी कारण से कामदेव की गति को कुटिल कहा गया है।। ३।।
माराक्ङे रतिकेलिसक्ङुलरणारम्भे तया साहसप्रायं कान्तजयाय किञ्चिदुपरि प्रारम्भि यत्सम्भ्रमात।
निष्पान्दा जघनस्थली शिथिलिता दोर्वल्लिरुत्कम्पितं वक्षो मिलितमक्षि पौरुषरसः स्त्रीणां कुतः सिद्धयति।। ४।।
सुरत क्रीडारूपी संग्राम के आरम्भ हो जाने पर राधिका ने साहस से पति पर विजय प्राप्त करने के लिये कुछ समय तक श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर सम्भ्रम पूर्वक विपरीत रति क्रिया प्रारम्भ की, उस समय उनकी जाँघें स्तब्ध हो गयीं, बाँहें स्थिल हो गयीं, छाती धड़कने लगी, परमानन्द से आँखें ढपने लगीं, ठीक ही है स्त्रियों में पौरुष कहाँ से आ सकता है।। ४।।
तस्याः पाटलपाणिजाक्ङितमुरो निद्राकषाये दृशौ निर्धूता अधरशोणिमा विलुलितस्रस्तस्रजो मूर्द्धजाः।
काञ्चीदाम दरश्लथांचलमिति प्रातर्निखातैर्दृशोरेभिः कामशरैस्तदभ्दुतमहोपत्युर्मनः कीलितम्।। ५।।
नखक्षत चिन्हित राधा के वक्षःस्थल, रात्रि के जागरण से लाल-लाल उनकी आँखें, चुम्बन से नष्ट लालिमा वाले अधरोष्ठ, बिखरे और शिथिल बन्धन वाले मालायुक्त्त केश, कमर की करधनी के समीप खुले हुए वस्त्र आदि प्रातःकाल देखकर श्रीकृष्ण का चित्त (पुनः) कामदेव के बाणों से विद्ध होने लगा।। ५।।
त्वामप्राप्य मयि स्वयंवरपरां क्षीरोदतीरोदरे शक्ङे सुन्दरि ! कालकूटमपिबन्मूढो मृडानीपतिः।
इत्थं पूर्वकथाभिरन्यमनसा विक्षिप्यवामाञ्चलं राधायाः स्तनकोरकोपरिचलन्नेत्रे हरिः पातु वः।। ६।।
हे क्षीरसागर के तीर पर स्वयंवर के लिये आई हुई सुन्दरी ! आपको न पाकर के ही मृडानिपति शंकर ने विष पी लिया था, ऐसा मेरा अनुमान है। इस प्रकार अपनी पूर्व कथा की स्मृति से अन्यमनस्क राधिका के कूचों पर का वस्त्र हटाकर प्रसन्न होने वाले श्रीकृष्णजी आपकी रक्षि करें।। ६।।
व्यालोलः केशपाशस्तरलितमलकैः स्वेदलोलौ कपोलौ स्पष्टा बिम्बाधरश्रीः कुचकलशरुचा हारिता हारयष्टिः।
काञ्चीकिञ्चीद्गताशांस्तनजघनपदं पाणिनाच्छाद्य सद्यः पश्यन्ती चात्मरुपं तदपि विलुलितं स्रग्धरेयं धुनोति।। ७।।
जिनका केश पाश बिखर गया है, अलकें चंचल हो गयीं हैं, दोनों गाल पसीने की बूँदों से गीले हो गये हैं, ओष्ठों के ऊपर दन्तक्षत स्पष्ट विदित हो रहे हैं, कलश के समान स्तनों की शोभा से मुक्त्ताहार पराजित हो गये हैं, करधनी सिकुड़ी हुई एक ओर पड़ी है~ प्रातः अपनी ऐसी अवस्थापर राधा ने अपने हाथों से कूचों और जाघों को ढाँक अपने रूप को देखती और साधारण फूलों की माला को धारण करती हुई वह श्रीकृष्ण को आनन्दकारिणी मालूम पड़ीं।। ७।।
ईषन्मीलितदृष्टि मुग्धहसितं सीत्कारधारावशादव्यक्त्ताकुलकेलिकाकुविकसद्दन्तांशुधौताधरम्।
श्र्वासोत्कम्पिपयोधरोपरि परिष्वग्ङात्कुरग्ङीदृशो हर्षोत्कर्षविमुक्त्तनिः सहतनोर्धन्यो धयत्याननम्।। ८।।
कामकेलि की उत्कंठा से उत्पन्न शिथिल स्वासोच्छ्वास के कारण कुछ हिलते हुए कूचों के आलिंगन से, हर्ष के अतिरेक से कुछ बन्द नेत्रों वाले और सुन्दर हास्य से युक्त्त तथा लगातार सीत्कारों के वशीभूत अव्यक्त्त एवं व्याकुलता से उत्पन्न शब्दों से विकसित दाँतों की कान्ति से प्रक्षालित आधार वाले सुन्दर मुख का पान (चुम्बन) विरले ! भाग्यवान् करते हैं।। ८।।
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