भाग 27 अध्याय 11
अथ श्री गीतगोविन्दम्
अथ एकादशः सर्गः।~तृतीयः ~
त्वां चित्तेन चिरं वहकनयमतिश्रान्तो भृशं तापितः कन्दर्पेण च पातुमिच्छति सुधासम्बाधबिम्बाधरम्।
अस्याकङं तदलक्ङुरु क्षणमिह भ्रूक्षेपलक्ष्म्यास्तवक्रीते दास इवोपसेवितपदाम्भोजे कुतः सम्भ्रमः।। ६।।
हे राधिके ! आपको चिर काल तक चित्त में धारण करने से अधिक थके हुए, कामदेव से अत्यन्त सताये हुए श्रीकृष्ण आपके सुधारस से परिपूर्ण कुन्दरू फल के सदृश लाल-अधरों को पान करना चाहते हैं, इसलिये हे प्रिये ! इकी गोद को क्षणमात्र के लिये शोभित कर दीजिए, क्योंकि ये श्रीकृष्ण आपकी तिरछी भौहों के इशारे पर खरीदे हुए दास के समान आपके चरण कमलों की सेवा करने वाले हैं। इसलिये इन श्रीकृष्ण के पास जाने में हिचकिचाहट कैसी ?।। ६।।
सा ससाध्वससानन्दं गोविन्दे लोललोचना।
सिञ्जानमञ्जुमञ्जीरं प्रविवेश निवेशनम्।। ७।।
इसके बाद चञ्चल नयनी वह राधा लज्जा और आनन्द के साथ अपने पायजेब की मनोहर ध्वनि करती हुई उस लताकुञ्ज में चली गयीं।।७।।
वराडीरागे रुपकताले अष्टपदी।। २२।।
रिधावदनविलोकनविकसितविविधविकारविभग्ङम्।
जलनिधिमिव विधुमण्डलदर्शनतरलिततुग्ङतरग्ङम्।।
हरिमेकरसं चिरमभिलषितविलासम्।
सा ददर्श गुरुहर्षवशंवदवदनमनग्ङनिवासम्।। ध्रुव०।। १।।
श्रीराधा ने, चन्द्रमण्डल को देखकर चञ्चल और ऊँचे तरग्ङ वाले समुद्र के समान, राधे के मुख रूपी चन्द्र के दर्शन से आनन्दित, अनेक प्रकार के श्रंगार लस के भावों से पूर्ण, समभाव वाले, चिरकाल से अपनी राधा के साथ बिहार करने की इच्छा रखने वाले, हर्ष से आह्लादित मुख वाले और कामदेव के वासस्थान रूप श्रीकृष्ण को देखा।। १।।
हारममलतरफेनकदम्बकरम्बितमिव यमुनाजलपूरम्।। हरि०।। २।।
अत्यन्त सफेद फेन के समूह से मिले हुए यमुनाजल के प्रवाह के समान, जानुपर्यन्त लटकते हुए अति शुभ्र मुक्ताहार को वक्ष स्थल पर धारण किये हुए श्रीकृष्ण को राधा ने देखा।। २।।
श्यामलमृदुलकलेवरमण्डलमधिगतगौरदुकूलम्।
नीलनलिनमिव पीतपरागपटलभरवलयितमूलम्।। हरि०।। ३।।
पीले रंग वाले पराग से व्याप्त नीलकमल के समान कोमल शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए श्रीकृष्ण को राधा ने देखा।। ३।।
तरलदृगञ्चलचलनमनोहर- मदनजनितरतिरागम्।
स्फुटकमलोदरखेलितखञ्जन-युगमिव शरदि तडागम्।। हरि०।। ४।।
शरद ऋतु में खिले कमल के मध्य में क्रीडा करने वाले दो खञ्जरीट पक्षियों से युक्त्त तालाब के समान चंचल नयनों की कोरों से मनोहर मुख द्वारा युवतियों में रति की अभिलाषा उत्पन्न करने वाले श्रीकृष्ण को राधा ने देखा।। ४।।
मुखकमल को देखने के लिये परस्पर मिले हुए सूर्य के कुण्डलों से विभूषित, मुस्कराहट की छवि से मनोहर और प्रफुल्लित अधर पल्लवों द्वारा रमणियों को रति में लोभ उत्पन्न करने वाले श्रीकृष्ण को राधा ने देखा।। ५।।
शशिकिरणच्छुरितोदरजलधरसुन्दरकुसुमसुकेशम्।
तिमिरोदितविधुमण्डलनिर्मलमलयजतिलकनिवेशम्।। हरि०।। ६।।
चन्द्र किरणों से मिले हुए मेघ के मध्यभाग के समान मनोहर पुष्पों से सुन्दर केश वाले, अन्धेरे में उदित चन्द्रमण्डल के समान निर्मल और मलयागिरि चन्दन का तिलक किये हुए श्रीकृष्ण को राधा ने देखा।। ६।।
विपुलपुलकभरदन्तुरितं रतिकेलिकलाभिरधीरम्।
मणिगणकिरणसमूहसमुज्जवलभूषणसुभगशरीरम्।। हरि०।। ७।।
अत्यन्त रोमाञ्चित देह वाले, रति क्रीडा की कलाओं से अधीर, मणियों के किरण समूहों से प्रकाश मान, अलंकारों से सुन्दर शरीर वाले श्रीकृष्ण को राधा ने देखा।। ७।।
श्रीजयदेवभणितविभवद्विगुणीकृतभूषणभारम।
प्रणमत हृदि विनिधाय हरिं सुचिरं सुकृतोदयसारम्।। हरि०।। ८।।
हे भक्त्तो ! श्रीजयदेव कवि के वर्णन किये हुए विभव की अपेक्षा द्विगुणित अलंकारों से युक्त्त और चिरकाल से संचित पुण्योदय के तत्त्वरूप श्रीकृष्ण को हृदय में धारण कर प्रणाम कीजिए।। ८।।
अतिक्रम्यापांगं श्रवणपथपर्यन्तगमनप्रयासैने-वाक्ष्णोस्तरलतरतारं गमितयोः।
इदानीं राधायाः प्रियतमसमायातसमये पपात स्वेदाम्बुप्रसर इव हर्षाश्रुनिकरः।। ८।।
अति प्रिय श्रीकृष्ण दर्शन के समय राधा के नेत्र, अपांगों का अतिक्रमण करके कान तक चले गये, इसी श्रम से उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु के रूप में जलधारा बह निकली।। ८।।
भजन्त्यास्तलपान्तं कृतकपटकण्डूतिपिहितस्मितं याते गेहाद्बहिरवहितालीपरिजने।
प्रियास्यं पश्यन्त्याः स्मरशरवशाकूतसुभगं सलज्जाया लज्जा व्यगमदिव दूरं मृगदृशः।। ९।।
कान आदि के खुजलाने के बहाने अपनी मुस्कराहट को रोकने वाली चतुर सखिजनों के लतागृह के बाहर चले जाने पर पलंग पर बैठी हुई कामदेव के बाणों के वशीभूत अति कमनिय अपने प्रिय श्रीकृष्णचन्द्र के मुख को देखने वाली मृगनयनी राधा स्वयं लज्जित होकर दूर चलीं गयीं।। ९।।
जयश्रीविन्यस्तैर्महित इव मन्दारकुसुमैः स्वयं सिन्दूरेण द्विपरणमुदा मुद्रित इव।
भुजापीडाक्रीडाहतकुवलयापीडकरिणः प्रकीर्णासृग्बिन्दुर्जयति भुजदण्डो मुरजितः।। १०।।
प्रचण्ड भुजदण्ड की क्रीडा से कंस के कुवलयापीड नामक हाथी को मारने वाले, श्रीकृष्ण के रक्त्त के बिन्दुओं से व्याप्त भुजदण्डों की मानो विजयलक्ष्मी ने प्रसन्न होकर पारिजात के फूलों से स्वयं पूजा की हो और कुवलयापीड के संग्राम से हर्षित होकर स्वयं श्रीकृष्ण ने सिन्दूर से उसको रञ्जित हों ऐसा श्रीकृष्ण का भुजदण्ड आपका कल्याण करे।। १०।।
इस प्रकार से गीतगोविन्द काव्य के सानन्दगोविन्द नामक एकादश सर्ग सम्पूर्ण हुआ।
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