भाग 28 अध्याय 12

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ द्वादशः सर्गः।~ प्रथमः ~
गतवति सखिवृन्ते मन्दत्रपाभरनिर्भर-स्मरशरवशाकूतस्फीतस्मितस्नपिताधराम्।
सरसमनसं दृष्ट्वा राधां मुहुर्नवपल्लव-प्रसवशयने निक्षिप्ताक्षीमुवाच हरिः प्रियाम्।। १।।
सखियों के लताकुंज से बाहर चले जाने पर अत्यन्त लज्जा के कारण और कामदेव के वशीभूत होने से मुस्कराहट से युक्त्त अधरोष्ठ वाली तथा रतिक्रीडा के लिये सानुराग और नवपल्लव एवं कुसुमों द्वारा रचित शय्या का बार-बार अवलोकन करने वाली राधा को देखकर श्रीकृष्ण ने कहा।। १।।
विभासरागे एकतालीताले अष्टपदी।। २३।।
किसलयशयनतले कुरु कामिनि चरणनलिनविनिवेशम्।
तव पदपलकलववैरिपराभवमिदमनुभवतु सुवेशम्।।
क्षणमधुना नारायणमनुगतमनुसर मां राधिके ! ।। ध्रुव०।। १।।
हे कामिनी ! कोमल-कोमल पत्तों से बनी सेज के ऊपर अपने चरण कमलों को रखिये और आपके पदपल्लव के शत्रु ये शय्या के पल्लव क्षणमात्र आपके पदपल्लवों द्वारा प्राप्त पराभव का अनुभव करें, हे प्रिये ! मुहूर्त मात्र के लिये नारायण के अनूकूल हो जाइये।। १।।
करकमलेन करोमि चरणमहमागमितासि विदूरम।
क्षणमुपकुरु शयनोपरि मामवि नूपुरमनुगतिशूरम्।। क्षण०।। २।।
हे प्रिये ! आप बहुत दूर से आयी हैं इसलिये मैं अपने हाथों से आपके चरणों को दबाता हूँ। कृप्या, मेरी ही तरह इन नूपुरों का भी आदर कीजिये। इनको शय्या पर उतार दीजिये।। २।।
वदनसुधानिधिगलितममृतमिव रचय वचनमनुकूलम्।
विरहमिवापनयामि पयोधररोधकमुरसि दुकूलम्।। क्षण०।। ३।।
हे राधे ! आप अपने मुख के समान स्थित चन्द्र से निकले अमृत तुल्य अनुकूल वचन कहिए, मैं विरह के हटाये जाने की तरह आपके कूचों पर से वस्त्रों को हटाता हूँ।। ३।।
प्रियपरिरम्भणरभसवलितमिव पुलकितमन्यदुरवापम्।
मदुरसि कुचकलशं विनिवेशय शोषय मनसिजतापम्।। क्षण०।। ४।।
हे राधे ! प्रिय के आलिंगन के लिये सन्नद्ध तथा रोमांचित और अन्यों को दुर्लभ कलश के सदृश इन स्तनों को मेरे वक्षःस्थल पर रखकर मेरी काम पीड़ा हरिये।। ४।।
अधरसुधारसमुपनय भामिनि ! जीवय मृतमिव दासम्।
त्वयि विनिहितमनसं विरहानलदग्धवपुषमविलासम्।। क्षण०।। ५।।
हे भामिनी ! तुम्हारे में आसक्त्त, विलास हित विरहरूप अग्नि से झुलसे शरीर वाले, मरे हुए की तरह इस सेवक को अपने अधर रूपी अमृत का पान कराकर जीवित कर दो।। ५।।
शशिमुखि मुखरय मणिरशनागुणमनुगुणकण्ठनिनादम्।
श्रुतियुगले पिकरवविकले मम शमय चिरादवसादम्।। क्षण०।। ६।।
हे चन्द्रानने ! अपने कंठ की ध्वनि के समान करधनी के मणियों को बजाइये, तथा कोयल की ध्वनि से व्यथित मेरे कानों के दुःख को शान्त करिये।। ६।।
मामतिविफलरुषा विकलीकृतमवलोकितुमधुनेदम्।
लज्जितमिव नयनं तव विरमति सृजसि वृथारतिखेदम्।। क्षण०।। ७।।
हे सुन्दरि ! सर्वथा व्यर्थ के क्रोध से उत्तेजित मुझे देखने के लिये आपके ये नेत्र इस समय लज्जायुक्त्त हो बन्द हो रहे हैं, इसलिए विश्राम कीजिये, रति खेद को छोड़ दीजिये।। ७।।
श्रीजयदेवभणितमिदमनुपदनिगदितमधुरिपुमोदम्।
जनयतु रसिकजनेषु मनोरमरतिरसभावविनोदम्।। क्षण०।। ८।।
पद-पद में श्रीकृष्ण के आनन्द का वर्णन करने वाले जयदेव कवि द्वारा रचित यह गीत रसिक जनों में सुन्दर श्रंगार-रस के आनन्द को उत्पन्न करे।। ८।।

Comments

Popular posts from this blog

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1

65