भाग 25अध्याय 11
अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ एकादशः सर्गः। ~प्रथमः ~
सुचिरमनुनयेन प्रीणयित्वा मृगाक्षीं गतवति कृतवेशे केशव कुञ्जशय्याम्।
रचितरुचिरभूषां दृष्टिमोषे प्रदोषे स्फुरति निरवसादां कापि राधां जगाद्।। १।।
बहुत देर तक अनुनय विनय करके श्रीराधा को प्रसन्न कर लेने पर सन्ध्या के समय श्रीकृष्ण के कुञ्ज में शयन करने के लिये चले जाने पर और दृष्टि को चुराने वाले प्रदोष समय के आ जाने पर एक सखी ने अच्छे श्रंगार से सजी अति प्रमुदित हृदय वाली श्रीराधा से कहा।। १।।
वसन्तरागे रुपकताले अष्टपदी।। २०।।
विरचितचाटुवचनरचनं चरणे रचितप्रणिपातम्।
सम्प्रति मञ्जुलवञ्जुलसीमनि केलिशयनमनुयातम्।।
मुग्धे मधुमथनमनुगतमनुसर राधिके।। ध्रुव०।। १।।
हे मुग्धे ! मधुर वचनों को कहकर आपके पैरों में पड़ने वाले, इस समय आपके अनुकूल मनोहर श्रीकृष्ण बैंत के लता गृह में क्रीडाशयन पर पधारे हैं, इसलिये हे राधे ! उन मधुरिपु श्रीकृष्ण के समीप शीघ्र चलिये।। १।।
घनजघनस्तनभारभरे दरमन्थरचरणविहारम्।
मुखरितमणिञ्जीरमुपैहि विधेहि मरालविकारम्।। मुग्धे०।। २।।
हे सघन जँघाओं वाली तथा उभरे हुए और कड़े-कड़े स्तनों वाली प्यारी ! धीरे-धीरे अपने शिथिल पैरों को पृथ्वी पर रखती हुई तथा मणि नूपुरों को बजाती हुई, हंस की चाल सै श्रीकृष्ण के समुप चलिये।। २।।
श्रृणु रमणीयतरं तरुणीजनमोहन मधुरिपुरावम्।
कुसुमसरासनशासनवन्दिनि पिकनिकरे भज भावम्।। मुग्धे०।। ३।।
हे प्रिये ! युवतिजनों को मोहित करने वाले श्रीकृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि सुनिये तथा कामदेव की आज्ञा के प्रचार के लिये बन्दी का काम करने वाली कोकिलाओं के भाव को भजिये।। ३।।
अनिलतरलकिसलयनिकरेण करेण लतानिकुरम्बम्।
प्रेरणमिव करभोरु ! करोति गतिं प्रति मुञ्च विलम्बम्।। मुग्धे०।। ४।। हे करभोरु ! देखिये, इन लताओं का झुण्ड पवन द्वारा प्रेरित होकर चञ्चल पल्लवरूपी हाथों से आपको गमन की प्रेरणा दे रहा है, इसलिए हे प्रिये ! विलम्ब न करें, जल्द चलिये।।४।।
स्फुरितमनग्ङतरग्ङवशादिव सूचितहरिपरिरम्भम्।
पृच्छ मनोहरहारविमलजलधारममुं कुचकुम्भम्।। मुग्धे०।। ५।।
हे सखी ! यदि मेरे इस बात का विश्वास नहीं है, तो कामदेव के तरंग के वशीभूत चलायमान और श्रीकृष्ण के आलिंगन को पहले ही से सूचित करने वाले एवं मनोहर हाररूपी जलधारा वाले कुम्भ के समान अपने इन दोनों कुचों से पूछ लीजिये कि ये क्यों फुरफुरा रहे हैं।। ५।।
अधिगतमखिलसखीभिरिदं तव वपुरपि रतिरणसज्जम्।
चण्डि रसितरशनारवडिण्डिममभिसर सरसमलज्जम्।। मुग्धे०।। ६।।
हे मानिनी ! सभी सखियों को यह बात अच्छी तरह मालूम हो चुकी है कि आपका शरीर रतिरूपी संग्राम के लिये प्रस्तुत है, ऐसी अवस्था में, हे चण्डि ! लज्जा को त्याग कर प्रेम से करधनी के शब्द को करती हुई आप संकेत स्थल की ओर चलें।। ६।।
स्मरशरसुभगनखेन सखुमवलम्ब्य करेण सलीलम्।
चल वलयक्वणितैरवबोधय हरिमपि निजगतिशीलम्।। मुग्धे०।। ७।।
हे सुभगे ! कामदेव के समान सुन्दर नख वाले हाथ से लीला पूर्वक बड़े हाव-भाव के साथ सखी का हाथ पकड़ कर चलिये और कामदेव के वशीभूत श्रीकृष्ण को हाथ के कड़ों के घुँघरुओं को बजाकर अपने आने की सूचना दीजिए।। ७।।
श्रीजयदेव भणितमधरीकृतहारमुदासितवामम्।
हरिविनिहितमनसामधितिष्ठतु कण्ठतटीमविरिमम्।। मुग्धे०।। ८।।
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