भाग 24 अध्याय 10

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ दशमः सर्गः। ~द्वितीयः ~
परिहर कृतातक्ङे शक्ङा त्वया सततं घनस्तनजघनयाक्रान्ते स्वान्ते परनवकाशिनी।
विशति वितनोरन्यो धन्यो न को पि ममान्तरं स्तनभरपरिरम्भारम्भे विधेहि विधेयताम्।। १।।
हे कामसन्तप्त हृदये ! मैं दूसरी नायिका के पास जाता हूँ , इस तरह की शंकाओं को छोड़ दें क्योंकि कठोर स्तन और सघन जंघाओं वाली, आपके मेरे हृदय में व्याप्त हो जाने पर, दूसरी नायिका के रहने के लिये मेरे हृदय में स्थान ही नहीं रहता, वह कामदेव ही धन्य है जो मेरे हृदय में प्रवेश करता है, हे प्रिये ! सुदृढ़ आलिंगन का पात्र मुझे बनाइये।। १।।
मुग्धे ! विधेहि मयि निर्दयदन्तदंशं दोर्वल्लबन्धनिबिडस्तनपीडनानि।
चण्डि ! त्वमेव मुदमुद्वह पञ्चबाण-चाण्डालकाण्डदलनादसवः प्रयान्ति।। २।।
हे मुग्धे ! आप मुझे निर्दयता पूर्वक दाँतों से काटिये अपनी भुजा रूप लताओं से मुझे बाँधिये और अत्यन्त कठोर अपने स्तनों से दबा दीजिये, मेरे जैसे अपराधी के लिये यही दण्ड है। हे चण्डि ! आप ही मुझे प्रसन्न करें, क्योंकि चाण्डाल कामदेव के बाणों से मेरे प्राण जा रहे हैं।। २।।
शशिमुखि ! तव भाति भग्ङुरभ्रूर्युव-जनमोहकरालकालसर्पी ।
तदुदितभयभञ्जनाय           यूनां
त्वदधरसीधुसुधैव सिद्धमन्त्रः।। ३।।
हे चन्द्रमुखी ! आपकी तिरछी भौहें तरुण पुरुषों के मोहन में अति भयंकर काले सर्पों की तरह हैं, इन भौहों से उत्पन्न मूर्छा वाले युवकों के भय नाश के लिये आपकी अधर रूपी सुधा ही सिद्धमन्त्र अर्थात् रामबाण औषधी है।। ३।।
व्यथयति वृथा मौनं तन्वि ! प्रपञ्चय पञ्चमं तरुणि ! मधुरालपैस्तापं विनोदय दृष्टिभिः।
सुमुखि ! विमुखीभावं तावद्विमुञ्च न मुञ्चमां स्वयमतिशयस्निग्धो मुग्धे ! प्रियो यमुपस्थितः।। ४।।
हे कृशांगी ! आपका मौन भाव मुझे वृथा कष्ट दे रहा है, हे तरुणि ! मीठी-मीठी बातों से पंचम स्वर में मुझसे बातें कर मेरे हार्दिक संताप को दूर करिये, हे चारुवक्त्रे ! मेरी ओर जरा प्रेम से एक नजर देखिये, अब मुझे मत ठगिये, हे मुग्धे ! मैं आपका अनन्य प्रेमी स्वयं आ गया हूँ।। ४।।
बन्धूकद्युतिबान्धवो यमधरः स्निग्धो मधूकच्छविर्गण्डश्र्चण्डि ! चकास्ति नीलनलिनश्रीमोचनं लोचनम्।
नासाभ्येति तिलप्रसूनपदवीं कुन्दाभदन्ति प्रिये ! प्रायस्त्वन्मुखसेवया विजयते विश्र्वं स पुष्पायुधः ।। ५।।
हे चण्डि ! दुपहरिया के फूल के समान लाल-लाल यह आपका अधर, महुए के फूल के समां सुन्दर ये आपके चिकने गाल, नीले कमल की कान्ति को चुराने वाली आपकी ये आँखें, तिलके फूल के समान यह आपकी नासिका विलक्षण शोभा दे रही है। हे कुन्द के सदृश दाँतों वाली ! इस तरह कामदेव आपके ही मुख के आश्रय से विश्र्वविजय करता है ~ १. बन्धूक, २. मधूक, ३. नीलोत्पल, ४. तिलपुष्प, ५. कुन्दरूप ये पाँचों पुष्प-बाण आप ही के मुख पर विराजमान हैं।। ५।।
दृशौ तव मदालसे वदनमिन्दुसन्दीपनं गतिर्जनमनोरमा विधुतरम्भमूरुद्वयम्।
वहो विबुधयौवनं वहसि तन्वि ! पृथ्वीगता।। ६।।
हे सुन्दरी ! आपकी आँखें मद से भरी हुई हैं, आपका मुख चन्द्रमा के समान है, आपका गमन, देखने वालों के मन को हरण करने वाला, आपकी जाँघें के खम्भों को भी जीत चुकी हैं, आपकी रथनतिक्रीड़ा कलापूर्ण है, आपकी भौहें सुन्दर और विचित्र रेखा की तरह हैं, हे तन्वि ! आश्र्चर्य है कि पृथ्वी पर रहने पर भी आप में सुरागंनाओं के गुण विद्यमान हैं।। ६।।
स प्रीतिं तनुतां हरिः कुवलयापीडेन सार्धं रणे राधापीनपयोधरस्मरणकृत्कुम्भेन् सम्भेदवान्।
पत्रे बिभ्यति मीलति क्षणयपि क्षिप्रं तदालोकनाद् व्यामोहेन जितं जितं जितमिति व्यालोलकोलाहलः।। ७।।
इति श्रीगीतगोविन्दे मानिनीवर्णने चतुश्र्चतुर्भुजो नाम दशमः सर्गः।। १०।।
कंस के हाथी कुवलयापीड के साथ युद्ध करते समय उसके कुम्भ को भेदन करने वाले, श्रीराधा के उन्नत स्तनों का स्मरण करने वाले, भयदायी हाथी की मृत्यु देख कर कंस को "जीत लिया जीत लिया" ऐसे कोलाहलों को मचाने वाले, कार्यों को करने वाले श्रीकृष्ण अपने भक्तों की प्रीति को बढ़ावें।। ७।।
इस प्रकार से गीतगोविन्द काव्य के चतुराभुज नामक दशम सर्ग सम्पूर्ण।

Comments

Popular posts from this blog

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1

65