भाग 23 अध्याय 9

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ नवमः सर्गः । ~
अथ तां मनमथखिन्नां रतिरसभिन्नां विषादसम्पन्नाम्।
अनुचिन्ततहरिचरितां कलहान्तरितामुवाच रहसि सखी।।
इसके बाद कामज्वर से पीड़ित, रतिसुख रहित, कलहान्तरिता (पति का तिरस्कार कर पश्र्चाताप करने वाली) श्रीराधा से एकान्त में एक सखी कहने लगी।। १।।
गुर्जररागे रुपकताले अष्टपदी।। १८।।
हरिरभिसरति वहति मधुपवने।
किमपरमधिकसुखं सखि भवने।।
माधवे मा कुरु मानिनि मानमये।। ध्रुवपद।। १।।
हे मां करने वाली राधिके ! अब आप श्रीकृष्ण के विषय में मान मत करिये, हे प्रिये ! वसन्त की हवा बहने पर प्रिय श्रीकृष्ण स्वयं संकेतस्थल में आ गये हैं, हे सखि ! क्या घर पर इससे भी अधिक आनन्द मिलेगा ?।। १।।
तालफलादपि   गुरुमतिसरसम्।
किं विफलीकुरुषे कुचकलशम्।। माध०।। २।।
हे प्रिये ! ताल फल से भी अधिक बड़े और अति सरस तथा कलश के समिन इन स्तनों को क्यों विफल कर रही हो ?।। २।।
कति न कथितमिदमनुपदमचिरम्।
मा परिहर हरिमतिशयरुचिरम्।। माध०।। ३।।
अति मानिनी ! मैंने कई बार नहीं कहा था क्या ? कि "परम सुन्दर श्रीकृष्ण का परित्याग न करिये"।। ३।।
किमिति विषीदसि रोदिषि विकला।
विहसति युवतिसभा तव सकला।। माध०।। ४।।
हे प्रिये ! अब आप क्यों पश्र्चाताप करती हो ? और क्यों व्याकुल होकर रोती हो, देखो यह सारी युवतियाँ आपका मजाक उड़ाती हैं।। ४।।
मृदु नलिनीदलशीतलशयने ।
हरिमवलोकय सफलय नयने।। माध०।। ५।।
हे मानिनी ! कोमल नलिनी के पत्तों से बनी शीतल शय्या पर श्रीकृष्ण को देखकर अपनी आँखों को कृतार्थ करिये।। ५।।
जनयसि मनसि किमिति गुरुखेदम्।
श्रृणु मम वचनमनीहितभेदम्।। माध०।। ६।।
हे प्रिये ! आप अपने मन में क्यों इस तरह अधिक खेद करती हैं, मेरी बात मानिये, करोषि हृदयमतिविधुरम्।। माध०।। ७।।
हे मानिनी ! ऐसा उपाय करिये कि भगवान् श्रीकृष्ण आपके समीप आवें और आप इस तरह से मीठी-मीठी उनसे बातें करें, अपने मन को क्यों क्लेशित कर रही हो।। ७।।
श्रीजयदेवभणितमतिललितम्।
सुखयतु रसिकजनं हरिचरितम्।। माध०।। ८।।
श्रीजयदेव कवि कृत अति सुन्दर श्रीकृष्ण चरित रसिकजनों को सुखकारी हो।। ८।।
स्निग्धे यत्परुषासि यत्प्रणमति स्तब्धासि यद्रागिणि द्वेषसकथासि यदुन्मुखे विमुखतां यातासि तस्मिन्प्रिये।
तद्युक्त्तं विपरीतकारिणि तव श्रीखण्डचर्चा विषं शीतांशुस्तपनो हिमं हुतवहः क्रीडामुदो यातनाः।। १।।
हे राधे ! आप श्रीकृष्ण से प्रेम करने पर उनसे रूखा व्यवहार करती हो, उनके नम्र होने पर कठोर हो जाती हो, उनके अनुरक्त्त होने पर विरक्त्त होती हो, उनके सामने आने पर मुँह फेर खड़ी होती हो, इसलिये आपको श्रीखण्ड चन्दन की चर्चा विष की तरह, चन्द्र सूर्य की तरह, हिम अग्नि की तरह, क्रीड़ा पीड़ा की तरह विपरीत लग रही है।। १।।
अन्तर्मोहनमौलिघूर्णनचलन्मन्दारविभ्रशनः स्तम्भाकर्षणदृष्टिहर्षणमहामन्त्रः कुरग्ङीदृशाम्।
दृप्यद्दानवदूयमानदिविषद्दुर्वारदुःखापदां भ्रशः कंसारिपोर्व्यपोहयतु वः श्रेयांसि वंशीरवः।। २।।
इति श्रीगीतगोविन्दे कलहान्तरितावर्णने मुग्धमुकुन्दो नाम नवमः सर्गः।। ९।।
तरुण गोपियों को मोहित करने में जिनके मुकुट में लगे हुए पारिजात के फूल ढीले पड़ गये हैं, तथा जो अचतेन पदार्थों तक को आकर्षित करते हैं, देखने वालों को हर्षान्वित करते हैं, जो महामन्त्र स्वरूप हैं, उद्दण्ड दैत्यों से पीड़ित देवताओं के दुःखों का शमन करते हैं, उन भगवान् श्रीकृष्ण के वंशी की ध्वनि आप लोगों का कल्याण करे।। २।।
इस प्रकार से श्रीगीतगोविन्द काव्य के मुग्धमुकुन्द नामक नवम सर्ग पूर्ण हुआ।

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