भाग 22 अध्याय 8

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ  अष्टमः  सर्गः ।
अथ कथमापि यामिनीं विनीय
स्मरशरजर्जरितापि सा प्रभाते।
अनुनयवचनं        वदन्तमग्रे
प्रणतमपि प्रियमाह साभ्यसूयम्।। १।।
इसके बाद किसी तरह रात बिताकर कामबाणों से पीड़ित होने पर भी वह श्रीराधा, प्रात:काल आकर विनय पूर्वक सान्त्वना वचन से बोलने वाले
और पैरों पर पड़ने वाले अपने विष श्रीकृष्ण से ईर्ष्यायुक्त्त होकर बोलीं।। १।।
भैरवीरागे एकतालीताले अष्टपदी।। १७।।
रजनिजनितगुरुजागररागकषायितमलस-निमेषम् वहित नयनमनुरागमिव स्फुटमुदितरसाभिनिवेशम्।
हरि हरि याहि माधव याहि केशव मा वद कैतववादम्।
तामनुसर सरसीरुहलोचन या तव हरित विषादम्।। ध्रुवपद।। १।।
रात्रि के जागरण से उत्पन्न थकावट के कारण आपके नेत्र लाल-लाल हो रहे हैं और पलक आलस्य से भरे दिखाई देते हैं। जिससे स्पष्ट प्रगट है कि किसी नायिका के श्रग्ङार रस का अनुराग इन नेत्रों में भरा हुआ है। अतः हे माधव ! आप उसी नायिका के पास जाइये जो आप पर अनुरक्त्त है। हे कमलनयन ! आप उसी को अपनाइये जो आपके दुःख को दूर करती है, धूर्त्तता भरे वाक्यों को मेरे सामने न कहिए।। १।।
कज्जलमलिनविलोचनचुम्बनविरचितनीलमरूपम्।
दशनवसनमरुणं तव कृष्ण तनोति तनोरनुरूपम्।। हरि०।। २।।
हे कृष्ण ! काजल से काले-काले नेत्रों के चुम्बन से आपके लाल ओष्ठ नीले पड़ गये हैं और आपकी देह के रंग में मिल गये हैं।। २।।
वपुरनुहरति तव स्मरसग्ङरखरनखरक्षतरेखम्।
मरकतशकलकलितकलधौतलिपेरिव रतिजलेखम्।। हरि०।। ३।।
हे कृष्ण ! कामयुद्ध में तीखे-तीखे नाखूनों के क्षत से रेखा युक्त आपका शरीर ऐसा प्रतीत होता है जैसे पन्ने के टुकड़ों पर सुवर्णाक्षरों से रतिजय लेख लिखागया हो, अर्थात् उस नायिका ने प्रसन्न हो आपको खूब नोंचा हो। जिससे आपके शरीर में विजय पाने के प्रमाण की भाँति ये नखक्षत् दिखाई दे रहे हैं, इसलिये हे नाथ ! आप उसी के पास जाइये।। ३।।
चरणकमलगलक्त्तकसिक्त्तमिदं तव हृदयमुदारम्।
दर्शयतीव बहिर्मर्दनद्रुमनवकिसलयपरिवारम्।। हरि०।। ४।।
हे कृष्ण !उस नायिका के चरण-कमलों से निकलने वाले महावर से सींचा हुआ यह आपका उदार हृदय ऐसे दिखाई देता है मानो, मदन रूपी वृक्ष के पत्तों का समूह बाहर आ गया हो। इसलिये आप उसके पास जाइये।। ४।।
दशनपदं भवदधरगतं मम जनयति चेतसि खेदम्।
कथयति कथमधुनापि मया सह तव वपुरेतदभेदम्।। हरि०।। ४।।
हे कृष्ण ! आपके ओठों पर परकीया अंगना से किये हुए दन्तक्षत को जब में देखती हूँ तब मेरे चित्त में अत्यन्त खेद होता है, इतना होने पर भी क्या आप हममें तथा तुममें अभेद है ? ऐसा कह सकते हैं।। ५।।
बिहरिव मलिनतरं तव कृष्ण मनो पि भविष्यति नूनम्।
कथमथ वञ्चसे जनमनुगतमसमशरज्व दूनम्।। हरि०।। ६।।
हे कृष्ण ! मुझे ऐसा मालूम होता है जैसे आपका शरीर काला है वैसे आपका अनतःकरण भी काला है। नहीं तो आपका ही अनुगमन कर वाले काम पीड़ित मुझ सरीखे जन को क्यों छलते ?।। ६।।
भ्रमति भवानबलाकवलाय वनेषु किमत्र विचित्रम्।
प्रथयति पूतनिकैव वधूवधनिर्दयबालचरित्रम्।। हरि०।। ७।।
हे कृष्ण ! आप इस जंगल में अबलाओं को सताने के लिये भ्रमण करते हैं, इसमें तनिक भी संशय, क्योंकि निर्दयता पूर्वक स्त्रियों को मारने वाला आपका बालचरित पूतना ने ही प्रकट कर दिया।। ७।।
श्रीजयदेवभणितरतिवञ्चितखण्डितयुवतिविलापम्।
श्रृणुत सुधामधुरं विबुधा विबुधालयतो पि दुरापम्।। हरि०।। ८।।
हे पंडित जनो ! जयदेव कवि विरचित सम्भोग श्रृग्ङार से वञ्चित खंडिता नायिका का विरह विलाप सुनिये, अमृत के समान यह मधुर यह श्रीकृष्ण और राधाजी का चरित स्वर्ग में भी दुर्लभ है।। ८।।
तवेदं पश्यन्त्याः प्रसरदनुरागं बहिरिव
प्रियापादालक्त्तच्छुरितमरुणद्योति हृदयम्।
ममाद्य प्रख्यातप्रणयभरभग्ङेन कितव ! त्वदालोकः शोकादपि किमपि लज्जां जनयति।। १।।
हे धूर्त्त ! अन्य गोपवधू के पैरों लगे हुए महावर से आपका अन्तःकरण बाहरी अनुराग से रञ्जित ज्ञात होता है। और आपके इस कृत्रिम प्रेम को जानकर जगत्प्रसिद्ध आपके विपुल अनुराग के नाश के भय से आपका दर्शन, शोक से मुझे लज्जित करता है।। १।।
प्रातर्नीलनिचोलमच्युतमुरः सवीतपीतांशुकं राधायाश्र्चकितं विलोक्य हसति स्वैरं सखीमण्डले।
व्रीडाचञ्चलमञ्चल नयनयोराधाय राधानने स्वादुस्मेरमुखो यमस्तु जगदानन्दाय नन्दात्मजः।। २।।
इति श्रीगीतगोविन्दे खण्डितवर्णने विलक्षणलक्ष्मीपतिर्नामाष्टमः सर्गः।। ८।।
प्रातःकाल नीले रंगों के वस्त्रों को धारण किये श्रीकृष्ण को और पीताम्बर से आच्छादित श्रीराधा के वक्षःस्थल को देखकर सखियों के आश्र्चर्य की सीमा न रही, तत्काल, लज्जायुक्त्त मन्द हास्य से पूर्ण चञ्चल अपांगो द्वारा राधा के मुख कमल की ओर निहारने वाले नन्द के पुत्र संसार के आनन्द के लिये हों।। २।।
इस प्रकार गीतगोविन्द काव्य  भावपूर्ण अष्टम सर्ग पूर्ण हुआ।

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