भाग 21 अध्याय 7

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ सप्तमः सर्ग:।~पंचमः
मनोभवानन्दन   चन्दनानिल
प्रसीद रे दक्षिण मुञ्च वामताम्।
क्षणं जगत्प्राण विधाय माधवं
पुरो मम प्राणहरो भविष्यसि।। १।।
हे कामदेव को आनन्दित करने वाले मलयाचल सम्बन्धी दक्षिण वायु ! कृप्या अपनी कुटिलता त्यागिए, हे जगत्प्राण ! मेरे सामने माधव को उपस्थित कर तब मेरे प्राण हरिये।। १।।
रिपुरिव सखीसंवासो यं शिखीव हिमानिलो
विषमिव सुधारश्मिर्यस्मिन् दुनोति मनोगते।
हृदयेमदये तस्मिन्नैवं पुनर्बलते बलात् कुवलयदृशां वामः कामो निकामनिरंकुशः।। २।।
हे प्रिये ! जब उन प्रियतम श्रीकृष्ण का स्मरण हो आता है तब सखियों के साथ उठना-बैठना शत्रुवत् , ठडी वायु अग्रवित् , अमृत-किरणधारी चन्द्र विषवत् और अति क्लेशकारी मालूम पड़ते हैं। इतना होने पर भी, उन निर्दयी श्रीकृष्ण की याद आ जाने पर मेरा चित्त उनकी ओर झुक जाता है। वास्तव में मृगनयनियों के लिये कामदेव अत्यन्त दुष्ट तथा निरंकुश है।। २।।
बाधां विधेहि मलयानिल पंचबाण प्राणान् गृहाण न गृहं पुनराश्रयिष्ये।
किं ते कृतान्तभगिनि क्षमया तरंगैरंगानि सिंच मम शाम्यतु देहदाहः।। ३।।
हे मलयाचल के पवन ! आप मुझे अपनी इच्छानुसार खूब सता लीजिए, हे पञ्चबाण ! (कामदेव) आप भी मेरे प्राणों को हर लीजिए, मैं अब जीते जी घर वापस नहीं जाऊँगी। हे यमराज की बहिन यमुना ! आप भी मुझे क्षमा करें और आप अपनी तरंगों से मेरे अंगों को सींचें, जिससे मेरे शरीर का दाह सदा के लिये दूर हो जाए।। ३।।
सान्द्रानन्दपुरन्दरादिदिविषद् वृन्दैरमन्दादरदानम्रैर्मुकुटेन्द्रनीलमणिभिः संदर्शितेन्दीवरम्।
स्वछन्दं मकरन्दसुन्दरगलन्मन्दाकिनीमेदुरं श्रीगोविन्दपदारविन्दमशुभस्कन्दाय वन्दामहे।। ४।।
इति श्रीगीतगोविन्दे नागरनारायणो नाम सप्तमः सर्गः।। ७।।
अत्यधिक आनन्द से युक्त्त इन्द्रादि देवगण रत्न जड़े मुकुटों से बड़े आदर के साथ जिन भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श करते हैं और अपनी इच्छानुसार जिन भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के पराग से गंगाजल सदा व्याप्त रहता है; अशुभ नाश के लिये उनके पदारविन्दों में प्रणाम है।। ४।।

Comments

Popular posts from this blog

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1

65