भाग 20 अध्याय 7
अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ सप्तमः सर्गः। ~चतुर्थः
नायातः सखि निर्दयी यदि शठस्त्वं दूति किं दूयसे ? स्वछन्दं बहुवल्लभः स रमते किं तत्र ते दूषणम् ?।
पश्याद्य प्रियसंगमाय दयितस्याकृष्यमाणं गणैरुत्कण्ठार्तिभरादिव स्फुटदिदं चेतः स्वयं यास्यति।। १।।
हे सखि दूति ! यदि वे निर्दयी श्रीकृष्णचन्द्र नहीं आये तो इससे क्यों दुःखी हो रही हो, क्योकि वे तो अनेकों गोपियों वाले हैं, उनके साथ स्वेच्छा से रमण करते हैं, इसमें तेरा क्या दोष ? देख आज उन प्रियतम श्रीकृष्ण के गुणोंके वशीभूत होकर यह चित्त उत्कंठा से स्वयं ही उनके समीप मिलने जायेगा।। १।।
देशवरागे रुपकताले अष्टपदी।। १६।।
अनिलतरलकुलवलयनेन ।
तपति न सा किसलयशयनेन।।
सखि या रमिता वनमालिना।। ध्रुव।। १।।
हे सखि ! पवन से चलायमान कमल के समान नेत्र वाले वनमाली के साथ जिस युवती ने विहार किया, वह कोमल-कोमल पल्लवों की शय्या पर सोने से दुःखी नहीं होती।। १।।
विकसितसरसिजललितमुखेन ।
स्फुटति न सा मनसिजविशिखेन।। सखि०।। २।।
हे अलि ! खिले हुए कमल के समान मुख वाले श्रीकृष्ण के साथ सम्भोग करने वाली व्रजवनिता, कामवाणों से पीड़ित नहीं होती।। २।।
अमृतमधुरमृदुतरवचनेन ।
ज्वलति न सा मलयजपवनेन।। सखि०।। ३।।
हे प्रिये ! अमृत के समान मधुर और कोमलभाषी श्रीकृष्ण के साथ विहार करने वाली को चन्द्रमा की शीतल किरणें कभी नहीं सतातीं।। ४।।
सजलजलसमुदयरुचिरेण ।
दलित न सा हृदि चिरविरहेण।। सखि०।। ५।।
हे प्रिये ! जलपूर्ण मेघ के सदृश वर्ण वाले श्रीकृष्ण के साथ जिस रमणी ने रमण किया उसे चिरकाल के वियोग की व्यथा पीड़ा नहीं देती।। ५।।
कनकनिकषरुचिशुचिवसनेन ।
श्र्वसिति न सा परिजनहसनेन।। सखि०।। ६।।
हे अलि ! सुवर्ण के समान पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण के साथ सम्भोग करने वाली को सखियों के ताना मारने से दुःख नहीं होता।। ६।।
सकलभुवनजनवरतरुणेन ।
वहति न सा रुजमतिकरुणेन।। सखि०।। ७।।
हे सखि ! समस्त लोकों के लोगों में सर्वश्रेष्ठ तरुण और परम दयालु श्रीकृष्ण के साथ जिस गोप-वधू ने विहार किया उसे काम की पीड़ा नहीं सताती।। ७।।
श्रीजयदेवभणितवचनेन ।
प्रविशतु हरिरपि हृदयमनेन।। सखि०।। ८।।
श्रीजयदेव कवि के इस प्रकार के वचनों से श्रीकृष्ण भक्त्तों के हृदय में प्रवेश करें।। ८।।
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