भाग 19 अध्याय 7
अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ सप्तमः सर्गः। ~तृतीयः
विरहपांडुमुरारिमुखाम्बुजद्युतिरयं
तिरयन्नपि वेदनाम् ।
विधुरतीव तनोति मनोभवुः सुहृदये
हृदये मदनव्यथाम्।। १।।
हे सुहृदये ! मेरे विरह से पीले रंग वाले श्रीकृष्ण के मुख कमल के सदृश कान्ति वाला कामदेव का मित्र यह चन्द्र आनन्द-प्रद होने पर भी मेरे चित्त में काम व्यथा बढ़ाता है।। १।।
गुर्जररागे एकतालीताले अष्टपदी।। १५।।
समुदितमदने रमणीवदने चुम्बनवलिताधरे।
मृगमदतिलकं लिखति सपुलकं मृगमिव रजनीकरे।।
रमते यमुनापुलिनवने विजयी मुरारिरधुना।। ध्रुव।। १।।
हे प्रिये ! काम से देदीप्यमान चुम्बन करने से संकुचित और सुन्दर ओठों वाली गोप वधू के मुख पर श्रीकृष्ण, दर्प से कस्तूरी का तिलक करते हैं, जैसे चन्द्र में मृग चिन्ह है। ऐसे काम क्रीड़ा विजयी आनन्द-कन्द श्रीकृष्ण इस समय यमुना तीर वाले उपवन में रमण कर रहे हैं।। १।।
घनचयरुचिरे रचयति चिकुरे तरलिततरुणानने।
कुरबककुसुमं चपलासुषमं रतिपतिमृगकानने।। रमते०।। २।।
हे सखि ! मेघों के झुण्ड के सदृश सुन्दर, युवतियों के चित्त को चञ्चल करने वाले, कामदेव रूपी हरिण के वन रूप, गोपवनिता की चोटी में श्रीकृष्ण बिजली के समान शोभित पीले-पीले कुरैया के पुष्प गूँथ रहे हैं।। २।।
घटयति सुघने कुचयुगगगने मृगमदरुचिरूषिते।
मणिसरममलं तारकपटलं नखपदशशिभूषिते।। रमते०।। ३।।
हे प्रिये कस्तूरी धूलि से धूसरित उत्तग्ङकुचों पर नखरूपी चन्द्र से युक्त्त श्रीकृष्ण निर्मल मणियों के हार रूपी तारागणों को पहिनाते हैं।। ३।।
जितविशसकले मृदुभुजयुगले करतलनलिनीतले।
मरकतवलयं मधुकरनिचयं वितरति हिमशीतले।। रमते०।। ४।।
हे सखि ! श्रीकृष्ण भगवान् कमलदण्ड की कोमलता जीतने वाले नलिनुदल के समान हथेली वाले, बरफ के समान शीतल हाथों मे कमल के ऊपर भौरों के समान पन्ना जड़े कंकड़ पहना रहे हैं।। ४।।
रतिगृहजघने विपुलापघने मनसिजकनकासने।
मणिमयरसनं तोरणहसनं विकिरति कृतवासने।। रमते०।। ५।।
हे प्रिये ! श्रीकृष्ण कामदेव के लिए सुवर्ण के आसन सदृश सुवासित, विस्तृत और मोटे-मोटे रति के निवास स्थान रूपी जघन स्थलों पर मणिरचित तोरण के समान करधनी पहना रहे हैं।। ५।।
चरणकिसलये कमलानिलये नखमणिगणपूजिते।
बहिरपवरणं यावकभरणं जनयति हृदि योजिते।। रमते०।। ६।।
हे प्रिये ! वह श्रीकृष्णचन्द्रजी, नखरूपी मणियों से सुशोभित लक्ष्मी के निवास स्थान, कोमल-कोमल पल्लवों के समान किसी व्रजांगना के चरणों को अपने वक्षःस्थल पर रखकर उनमें महावर लगा रहे हैं।। ६।।
रमयति सुभृशं कामपि सुदृशं खलहलधरसोदरे।
किमफलमवसं चिरमिह विरसं वद सखि विकटपोदरे।। रमते।। ७।।
हे प्रिये ! अब वह बलराम का छोटा भाई किसी सुनयनी के साथ विहार करता है, तब हे सखि ! बताओ मैं क्यों इस पेड़ के नीचे बिना रस के उसकी प्रतीक्षा करूँ।। ७।।
इह रसभणने कृतहरिगुणने मधुरिपुपदसेवके।
कलियुगचरितं न वसतु दुरितं कविनृपजयदेवके।। रमते०।। ८।।
श्रृग्ङार रस का वर्णन करने वाले, हरि-गुण-गान करने वाले श्रीकृष्ण के चरण-सेवक, जयदेव कवि के अन्तःकरण में कलियुग के पाप चरित का वास न हो।। ८।।
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