भाग 18अध्याय 7

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ  सप्तमः  सर्गः। ~ द्वितीयः
तत्किं कामपि कामिनीमभिसृतः किं वा कलाकेलिभिर्बद्धो बन्धुभिरन्धकारिणि वनाभ्यर्णे किमद्भ्राम्यति।
कान्तः क्लान्तमना मनागपि पथि प्रस्थातुमेवाक्षमः संकेतीकृतमञ्जुबञ्जुललताकुञ्जे पि यन्नागतः।। १।।
संकेत स्थान में श्रीकृष्ण के न आने पर राधा सोचने लगीं~ क्या प्रियतम अन्य कामिनी के पास तो नहीं चले गये ? अथवा मित्रों के हास क्रीडा मे तो नहीं फँस गये ? अथवा इस अरण्य में अन्धेरे के कारण इतस्ततः भूल कर कहीं भटकते तो नहीं हैं ? अथवा मेरी भाँति वियोगी होकर चलने में असमर्थ तो नहीं हो गये ? जैसे कि संकेत होने पर भी उनके वियोग से एक पग भी चल नहीं सकती वैसे ही वह भी हो गये क्या ?।। १।।
अथागतां माधवमन्तरेण सखीमियं वीक्ष्य विषादमूकाम्।
विशंकमाना रमितं कयापि जनार्दनं दृष्टवदेतदाह।। २।।
इसके बाद कार्य की सिद्धि न होने के कारण दुःखी तथा मौन होकर अकेली आती हुई सखी को देखकर क्या, श्रीकृष्ण किसी अन्य गोपाग्ङना के साथ तो नहीं रमण करते हैं ? ऐसा प्रत्यक्ष देखे हुए की तरह श्रीराधा ने कहा।। २।।
वसन्तरागे एकतालीताले अष्टपदी।। १४।।
स्मरसमरोचितविरचितवेशा ।
गलितकुसुमदलविलुलितकेशा।।
कापि चपला मधुरिपुणा ।
विलसति युवतीरधिकगुणा।। ध्रुव०।। १।।
हे प्रिये ! कामदेव के साथ युद्ध करने के अनुरूप रचे हुए वेश वाली इधर-उधर गिरे हुए बालों के फूलों वाली हमसे अधिक सुन्दरी कोई चपल कामिनी श्रीकृष्ण के सिथ रमण कर रही है क्या ?।। १।।
हरिपरिम्भणवलितविकारि।
कुचकलशोपर तरलितहारा।। कापि०।। २।।
हे सखी ! श्रीकृष्ण के आलिग्ङन से उत्पन्न अनुराग वाली तथा कलश के समान कुचों के ऊपर हिलते हुए हार वाली कोई कामिनी श्रीकृष्ण के साथ विलास कर रही है क्या ?।। २।।
विचलदलक लिताननचन्द्रा ।
तदधरपानरभसकृततन्द्रा।। कापि०।। ३।।
हे प्रिये ! जिनके मुख चन्द्र पर चञ्चल अलके शोभित हो रही है तथा प्रिय द्वारा अधर पान से जिसे आलस्य आ रहा है, ऐसी किसी रमणी के साथ श्रीकृष्णचन्द्र रमण कर रहे हैं।। ३।।
चञ्चलकुण्डलदलितकपोला ।
मुखरितरसनजघनगतिलोला।। कापि०।। ४।।
चञ्चल कुण्डलों की रगड़ से जिनके कपोल घिस गये हैं, ऐसी और झन-झन शब्द करने वाली करघनी युक्त्त कमर की चञ्चल चाल वाली कोई व्रजवनिता श्रीकृष्ण के साथ आनन्द कर रही है।। ४।।
दयितविलोकितलज्जितहसिता ।
बहुविधकूजितरतिरसरसिता।। कापि०।। ५।।
हे प्रिये ! रति क्रीड़ा के समय अनेक प्रकार की मधुर बातों को करती हुई श्रीकृष्ण के अवलोकन से लज्जा भाव को प्राप्त और मुसकाती हुई कोई गोपी-ललना श्रीकृष्ण के साथ रमण कर रही है।। ५।।
विपुलपुलकपृथुवेपथुभंगा ।
श्र्वसितनिमीलितविकसदनंगा।। कापि०।। ६।।
हे सखि ! रतिश्रम से उत्पन्न श्र्वाँस लेने वाली तथा नेत्रों को बन्द करने से जिसके प्रत्यग्ङ में काम भाव व्याप्त हो गया है एवं रति के आनन्द से अत्यधिक रोमिञ्चित शरीर वाली कोई व्रजवनिता श्रीकृष्ण के साथ विहार कर रही है।। ६।।
श्रमजलकणभरसुभगशरीरा ।
परिपतितोरसि रतिरणधीरा।। कापि०।। ७।।
रति-श्रम से उत्पन्न पसीने के बिन्दुओं से सुन्दर शरीर वाली, रति के समय पति के वक्षःस्थल पर सोने वाली, रतिरूप समर में अति गम्भीर, कोई व्रजांगना श्रीकृष्ण के साथ आनन्द कर रही है।। ७।।
श्रीजयदेवभणितमतिललितम् ।
कलिकलुषं शमयतु हरिरमितम्।। कापि०।। ८।।
अति सुन्दर जयदेव कवि कृत हरि के रमण का वर्णन कलियुगी पापों का शमन करे।। ८।।

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