भाग 17 अध्याय 7
अथ श्री गीतगोविन्दम्
अथ सप्तमः सर्गः। ~प्रथमः
अत्रान्तरे च कुलटाकुलवर्त्मपातसञ्जातपातक इव स्फुटलाञ्छनश्रीः ।
वृन्दावनान्तरमदीपयदशुजालै-
र्दिक्सुन्दरीवदनचन्दनबिन्दुरिन्दुः।। १।।
इसी समय व्यभिचारिणी स्त्रियों के मार्ग रोकने से उत्पन्न पाप के कारण मानो स्पष्ट कलक्ङित तथा पूर्व दिशा रूपी रमणीमुख के चन्दन-बिन्दु के सदृश चन्द्रमा ने अपनी किरणों से वृन्दावन को प्रकाशित कर
दिया।। १।।
आर्या~
प्रसरति शशधरबिम्बे विहित विलम्बे च माधवे विधुरा।
विरचितविविधविलापं सा परितापं चकारोच्चैः।। २।।
चन्द्रबिम्ब के फैल जाने पर और श्रीकृष्ण के देर होने पर वह विरहिणी राधाजी, नाना प्रकार से जोर-जोर से विलाप करने लगीं।। २।।
मालवरागे एकतालीताले अष्टपदी।। १३।।
कथितसमये पि हरिरहह न ययौ वनम्।
मम विफलमिदममलरूपमपि यौवनम्।।
यामि हे कमिह शरणं सखिजनवचनवञ्चिता।। ध्रुव।। १।।
श्रीराधा ने कहा~ कहे हुए समय पर भी श्रीकृष्ण वन में नहीं आये यह बड़े दुःख की बात है, मेरा यह अनुरूप यौवन भी वृथा है, सखियों से ठगी मैं अब किसके शरण में रहूँ अथवा जलाश्रय लेना ही उचित है। (डूब मरना चाहिए)।। १।।
यदनुगमनाय निशि गहनमपि शीलितम्।
तेन मम हृदयमिदमसमशरकीलितम्।। यामि०।। २।।
जिन श्रीकृष्ण के लिये मैंने रात्रि के समय इस घोर जंगल में वास किया, उन्हीं श्रीकृष्ण ने मेरे हृदय में कामदेव के असह्य बाणों को गाड़ दिया।। २।।
मम मरणमेव वरमिति वितथकेतना।
किमिति विषहामि विरहानलमचेतना।। यामि०।। ३।।
इस जगंल में अब मैं ज्ञान-शून्य होकर विरह की आग कैसे सह सकती हूँ, मेरा यह शरीर भी वृथा है इससे मृत्यु कहीं अच्छी।। ३।।
मामहह विधुरयति मधुरमधुयामिनी।
कापि हरिमनुभवति कृतसुकृतकामिनी।। यामि०।। ४।।
अत्यन्त खेद है कि मनोहर वसन्ती ये रात्रियाँ मुझे दुःख दे रही हैं और ये ही रात्रियाँ अन्य गोपाग्ङना को जिसने पुण्य किया है, श्रीकृष्ण के साथ आनन्द का अनुभव करा रहीं हैं।। ४।।
अहह कलयामि वलयादिमणिभूषण।
हरिविरहदहनवहनेन बहुदूषणम्।। यामि०।। ५।।
हन्त, श्रीकृष्ण के विरह में रत्न जड़े कक्ङण आदि आभूषण दूषणतुल्य हैं। अर्थात बिना पति के मेरा सारा श्रग्ङार व्यर्थ है।। ५।।
कुसुमसुकुमारतनुमतनुशरलीलया।
स्रगपि हृदि हन्ति मामतिविषमशीलया।। यामि०।। ६।।
कामदेव के बाणों की लीला से फूलों के समान कोमल शरीर वाली मुझे, स्वभाव से ही मृदु यह पुष्पमाला असह्य आघात पहुँचाती है।। ६।।
अहमिह निवसामि नगणितवनवेतसा।
स्मरति मधुसूदनो मामपि न चेतसा।। यामि०।। ७।।
मैं तो प्यारे श्रीकृष्ण के लिए जंगल और बैंतौं की परवाह न करके यहाँ रह रही हूँ, किन्तु मधुसूदन मुझे हृदय से भी स्मरण नहीं करते।। ७।।
हरिचरणशरणजयदेवकविभारती।
वसतु हृदि युवतिरिव कोमलकलावती।। यामि०।। ८।।
कोमलकला से युक्त्त, श्रीकृष्ण के चरण के शरण वाली जयदेव कवि की वाणी आपके हृदय में समस्त श्रग्ङार की कलाओं से युक्त्त युवतियों की तरह बसे।। ८।।
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