भाग 15 अध्याय6

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ   षष्ठः   सर्गः।~प्रथमः
अथ तां गंतुमशक्त्तां चिरमनुरक्त्तां लतागृहे दृष्टवा।
तच्चरितं गोविन्दे मनसिजमन्दे सखी प्राह।। १।।
इसके अनन्तर गमन करने में असमर्थ तथा चिरकाल से अनुरागिणी राधाजी को लता गृह में देख कर कामदेव से पीड़ित श्रीकृष्ण से एक सखी ने श्रीराधा का चरित कहा।। १।।
गुणकरीरागेण रुपकताले अष्टपदी।। १२।।
पश्यति दिशि दिशि रहसि भवन्तम्।
तदधरमधुरमधूनि      पिबन्तम्।।
नाथ हरे जय नाथ हरे सीदति राधा  वासगृहे।। ध्रुवपद।। १।।
हे नाथ ! आपके अधर -रूपी मधुर-मधु को पीती हुई एकान्त में बैठी हुई श्रीराधा प्रति दिशाओं में आपही को देख रही हैं। हे नाथ, हे हरे ! हे नाथ, हे हरे ! आपकी जय हो ! श्रीराधा वासगृह में आपके लिए दुःखी हो रहीं हैं।। १।।
त्वदभिसरणरभसेन      वलंती ।
पतति पदानि कियन्ति चलन्ती।। नाथ हरे०।। २।।
हे कृष्ण ! वह राधाजी आपके विरह में इतनी दुबली हो गयीं हैं कि ज्योंहि वेग से आपके समीप आने लगती हैं त्योंहि दो-चार पैर चलकर गिरने लगतीं हैं।। २।।
विहितविशदबिसकिसलयवलया ।
जीवति परमिह तव रतिकलया।। नाथ हरे०।। ३।।
हे कृष्ण ! सफेद कमलनाल तथा नवीन पल्लव के कपड़े पहिनने वाली वह राधाजी एकमात्र आपके रति के लोभ से जीवित हैं।। ३।।
मुहुरवलोकितमण्डनलीला  ।
मधुरिपुरहमिति भावनशीला।। नाथ हरे०।। ४।।
हे नाथ ! वह राधाजी आपके सामने अपने वेश की रचना कर अत्यन्त अनुराग से पुनः -पुनः अपने आभूषणों की शोभा को निहारती हैं तथा "मैं ही
कृष्ण हूँ" इस प्रकार की भावना करती हैं।। ४।।
त्वरितमुपैति न कथमभिसारम् ।
हरिरिति वदति सखीमनुवारम्।। नाथ हरे०।। ५।।
हे भगवन् ! वह राधाजी अपनी सखी से बार-बार यह कहती हैं कि हरि अभिसार ( संकेतस्थान) में जल्दी क्यों नहीं आ रहे हैं ?।। ५।।
श्लिष्यति चुम्बित जलधरकल्पम् ।
हरिरुपगत इति तिमिरमनल्पम्।। नाथ  हरे०।। ६।।
हे मधुरिपो ! वह राधाजी मेघ के समान अन्धकार को देखकर आपही को आया हुआ समझ आलिग्ङन तथा चुम्बन करती हैं।। ६।।
भवति विलम्बिनि विगलितलज्जा ।
विलपति रोदिति वासकसज्जा।। नाथ हरे०।। ७।।
हे कंसरिपो ! आपके विलम्ब करने पर वासकसज्जा की भाँति श्रीराधा निर्लज्ज होकर रोती तथा विलाप करती हैं।। ७।।
श्रीजयदेवकवेरिदमुदितम् ।
रसिकजनं तनुतामतिमुदितम्।। नाथ हरे०।। ८।।
श्रीजयदेव कवि कृत यह गीत रसिकजनों के प्रेमानन्द को बढ़ावे।। ८।।

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