भाग 14 अध्याय 5

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ  पंचमः  सर्गः।~तृतीयः
विकिरति मुहुः कुश्र्वासान्नशाः पुरो मुहुरीक्षिते प्रविशति मुहुः कुञ्जं गुञ्जन् मुहुर्बहु ताम्यति ।
रचयति मुहुः शय्यां पर्य्याकुलं मुहुरीक्षते मदनकलनक्लान्तः कान्ते ! प्रियस्तव वर्तते।। १।।
हे प्रिये ! कामपीड़ित आपके प्रिय बारम्बार दीर्घ निःश्र्वास लेते हैं, पुनः -पुनः दिशाओं की ओर देखा करते हैं, बड़बड़ाते हुए बार-बार कुञ्ज में आते-जाते हैं, बारम्बार शय्या की रचना किया करते हैं और अधीरता से इधर-उधर देखा करते हैं।। १।।
त्वद्वाक्येन समं समग्रमधुना तिग्मांशुरस्त गतो गोविन्दस्य मनोरथेन च समं प्राप्तं तमः सांद्रताम्।
कोकानां करुणस्वनेन सदृशी दीर्घा मदभ्यर्थना तन्मुग्धे विफलं विलंबनमसौ रम्यो अभिसारक्षणः।। २।।
हे राधे ! आपके उत्तर की प्रतीक्षा के साथ-साथ देखिये सूर्य भी अस्त हो गया, श्रीकृष्ण के मनोरथ के साथ-साथ यह अंधेरा भी घना हो गया, चकवा-चकवी के करुण विलाप के सदृश मेरी लम्बी प्रार्थना भी समाप्त हो गयी, इसलिये अब हे सुन्दरी ! चलने विलम्ब करना व्यर्थ है, क्योंकि छिपकर चलने का यही समय है।। २।।
आश्लेषादनु चुम्बनादनु नखोल्लेखादनु स्वान्तजप्रोद्बोधादनु सम्भ्रमादनु रतारम्भादनु प्रीतयोः ।
अन्यार्थं गतयोर्भ्रमान्मिलितयोः सम्भाषणैर्जानतोर्दम्पत्योरिह को न को न तमसि व्रीडाविमिश्रो रसः।। ३।।
हे सखी ! अन्धेरे के समय स्त्री तथा पुरूष के संकेत स्थान में मिलने पर और परस्पर भाषण से परिचय होने पर आलिग्ङन, चुम्बन, कुचमर्दन, कुचों पर नखक्षत, कामोद्दीप्ति उसके पश्र्चात रति का आरम्भ होता है, ऐसे समय लज्जासंयुक्त्त दोनों प्रेमी-प्रेमिका को कौन-कौन से रस प्राप्त नहीं होते।। ३।।
सभयचकितं विन्यस्यन्तीं दृशं तिमिरे पथि प्रतितरु मुहुः स्थित्वा मन्दं पदानि वितन्वतीम् ।
कथमपि रहः प्राप्तामग्ङैरनग्ङतरग्ङिभिः सुमुखि ! सुभगः पश्यन् स त्वामुपैतु कृतार्थताम्।। ४।।
हे सखि ! अन्धेरी रात में भय से चकित चारों ओर देखने वाली, वृक्षों के नीचे बार-बार ठहर-ठहर कर धीरे-धीरे पैरों को बढ़ाने वाली, जिसके सारे शरीर में भगवान् कामदेव व्याप्त हो रहे हैं ऐसी आपको संकेत स्थल में देख कर सौभाग्यशाली श्रीकृष्ण कृत-कृत्य होवें।। ४।।
राधामुग्धमुखारविन्दमधुपस्त्रैलोक्यमौलि-स्थलीनेपथ्योचितनीलरत्नमवनी-भारावतारक्षमः।
स्वछन्दं व्रजसुन्दरीजनमनस्तोषप्रदोषश्र्चिरं कंसध्वंसनधूमकेतुरवतु त्वां देवकीनन्दनः।। ५।।
इति श्रीगीतगोविन्दे अभिसारिकावर्णने साकांक्षपुण्डीरकाक्षो नाम पंचमः सर्गः।। ५।।
श्रीराधा के सुन्दर मुख रूपी कमल में भ्रमर रूप, तीनों लोकों के मुकुट रूप, वेष रचना के लिये नीलमणि के समान, पृथ्वी का बोझ हलका करने में समर्थ, ब्रज की अग्ङनिओं के चित्त को प्रमुदित करने के लिए सध्या रूप, कस के विनाश में धूमकेतु (पुच्छल तारा) के समान देवकीनन्दन आपकी रक्षा करें।। ५।।
इस प्रकार से गीतगोविन्द काव्य के साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष नामक पंचम सर्ग पूर्ण हुआ।

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