भाग 13अध्याय 5

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ  पंचमः  सर्गः ~द्वितीयः
पूर्वं यत्र समं त्वया रतिपतेरासादिताः सिद्धयस्तस्मिन्नेव निकुञ्जमन्मथमहातीर्थे पुनर्माधवः।
ध्यायंस्त्वामनिशं जपन्नपि तवैवालापमन्त्रावलिं भूयसकत्वत्कुचकुम्भनिर्भरपरीरम्भा-मृतंवाञ्छति।। १।।
हे राधे ! जिस निकुञ्ज में सर्वप्रथम आपके साथ भगवान् श्रीकृष्ण ने कामदेव की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं आज उसी कामदेव के महातीर्थ कुञ्ज में बैठ कर श्रीकृष्ण दिन-रात आपका ही चिन्तन करते हुए, आपके नामाक्षरी से मन्त्रों को जपते हैं और आपके कलशतुल्य स्तनों के दृढ़ालिग्ङन रूपी अमृत की अभिलाषा करते हैं।। १।।
गुर्जररागे एकतालिताले अष्टपदी।। ११।।
रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेषम् नकुरु नितंबिनि ! गमनविलम्बनमनुसर तं हृदयेशम्।
धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली गोपीपीनपयोधरमर्दनचंचल-करययुगशाली।। ध्रुवपद।। १।।
हे प्रिये ! गोपियों के पुष्ट स्तनों के मलने में चंचल हाथों वाले वनमाली, जहाँ पर मन्द-मन्द पवन चल रहा है ऐसे यमुना के तट पर बैठे हैं। इसलिए हे नितम्बनी ! रति के सुख का सार ऐसे अभिसार में (संकेत स्थान में) बैठे हुए कामदेव के सदृश सुन्दर अपने प्राणेश के समीप चलने में विलम्ब न करिये।। १।।
नामसमेतं कृतसक्ङेतं वादयते मृदुवेणुम्।
बहु मनुते तनु ते तनुसग्ङतपवनचलितमपि रेणुम्।। धीरसमीरे०।। २।।
हे सखी ! श्रीकृष्ण मधुर ध्वनि से आपके नाम के संकेत से संयुक्त बंशी बजा रहे हैं और आपके शरीर के स्पर्श को प्राप्त धूलि भी जो पवन द्वारा उड़ कर उन तक पहुँच रही है, उसके स्पर्श से अपने को धन्य समझते हैं।। २।।
पतति पतत्रे विचलति पत्रे शंकितभवदुपयानम्।
रचयति शयनं सचकितनयनं पश्यति तव पन्थानम्।। धीरसमीरे०।। ३।।
हे राधे ! पक्षियों के उड़ने के शब्द का तथा पत्तों की खड़खड़ाहट को सुनकर श्रीकृष्ण आपके आगमन की सम्भावना करते हैं और चकित होकर आपके आगमन मार्ग को देखने लगते हैं तथा शय्या सजाने लगते हैं।। ३।।
मुखरमधीरं त्यज मंजीरे रिपुमिव केलिसुलोलम्।
चल सखी ! कुञ्जं सतिमिरपुंजं शीलय नीलनिचोलम्।। धीरसमीरे०।। ४।।
हे प्रिये ! शब्दायमान और रतिक्रीड़ा के समय चंचल, शत्रु की तरह इन अपने नूपुरों को जल्द से जल्द निकाल दीजिये और नीले वस्त्र धारण कर इस घने कुञ्ज में चलिये।। ४।।
उरसि मुरारेरुपहितहारे घन इव तरलबलाके।
तडिदिव पीते रतिविपरीते राजसि सुकृतविपाके।। धीरसमीरे०।। ५।।
हे पीतवर्णे राधे ! चंचल बकुल पंक्ति से युक्त मेघ की तरह हीरे के हार से सुशोभित तथा बड़े पुण्य से उपलब्ध श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर विपरीत रति करके बिजली की तरह आप चमकिये।। ५।।
विगलितवसनं परिहृतरसनं घटय जघनमपिधानम्।
किसलयसयने पंकजनयने निधिमिव हर्षनिदानम्।। धीरसमीरे०।। ६।।
हे प्रिये ! कोमल-कोमल पत्तों के ऊपर सोने वाले कमलनयन श्रीकृष्ण के ऊपर वस्त्र और करधनी आनन्द का खजाना अपनी जाँघों को मिलाइये।। ६।।
हरिरभमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम्।
कुरू मम वचनं सत्वररचनं पूरय मधुरिपुकामम्।। धीरसमीरे०।। ७।।
हे राधे ! हरि अभिमानी हैं और इस समय यह रात भी व्यतीत हुई जा रही है, इसलिए मेरे कहे हुए वचनों को शीघ्र सफल कीजिये तथा श्रीकृष्ण की इच्छा पूरी करिये।। ७।।
श्रीजयदेवे कृतहरिसेवे भणति परमरमणीयम्।
प्रमुदितहृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृतकमनीयम्।। धीरसमीरे०।। ८।।
श्रीहरि की सेवा करने वाले जयदेव कवि के इस गीत के परम रमणीय गाने पर अत्यन्त प्रसन्नचित्त वाले कमनीय अति सुन्दर श्रीकृष्ण को प्रणाम है।। ८।।

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