भाग 12 अध्याय 5
अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ पंचमः सर्गः ~प्रथमः
अहमिह निवसामि याहि राधा-
मनुनय मद्वचनेन चानयेथाः ।
इति मधुरिपुणा सखी नियुक्ता
स्वयमिवमेत्य पुनर्जगाद राधाम्।। १।।
श्रीराधा की भेजी हुई सखी के प्रेमपूर्ण वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने उससे कहा~ "मैं इसी कुञ्ज में बैठा हूँ, आप जाइये और मेरी ओर से राधा को समझा-बुझाकर यहाँ पर ले आइये" इस प्रकार श्रीकृष्ण के पास से सखी श्रीराधा के पास जाकर पुनः बोली।। १।।
देशवराडिरागे रुपकताले अष्टपदी।। १०।।
वहति मलयसमीरे मदनमुपनिधाय।
स्फुटति कुसुमनिकरे विरहिहृदयदलनाय।। १।।
तव विरहे वनमाली सखि! सीदति।।ध्रुव०।।
हे राधे ! कामदेव को सहायक बनाकर मलयाचल की हवा बहने पर और विरही जनों के हृदय विदीर्ण करने के लिए कलियों के खिलने पर हे सखी ! आपके विरह से वनमाली (श्रीकृष्णचन्द्र) पीड़ित हैं।। १।।
दहति शिशिरमयूखे मरणमनुकरोति।
पतति मदनविशिखे विलपति विकलतरो ति।। तव विरहे०।। २।।
हे सखी ! जिस समय चन्द्रमा अपनी किरणों से श्रीकृष्ण को जलाता है, उस समय श्रीकृष्ण को मरने के समय जैसी व्यथा सदृश पीड़ा होती है और जब कामदेव उनके ऊपर तीक्ष्ण बाण चलाता है, तब वै अत्यन्त दुःख से व्याकुल हो विलाप करने लगते हैं।। २।।
ध्वनति मधुपसमूहे श्रवणमपि दधाति।
मनसि कलितविरहे निशि निशि रुजमुपयाति।। तव विरहे०।। ३।।
हे प्रिये ! भ्रमरों की झंकार न सुनायी दे,इसलिए वे श्रीकृष्ण अपने कानों को बन्द कर लेते हैं और विरहाकान्त हृदय में आपके स्मरण से उनकी व्यथा दिन-रात बढ़ती जा रही है।। ३।।
वसति विपिनविताने त्यजति ललितधाम।
लुठति धरणिशयने बहु विलपति तव नाम।। तव विरहे०।। ४।।
हे सखी ! आपके विरहे में श्रीकृष्ण अपने सुन्दर राजमहल को छोड़ कर घोर जगंल में रह रहे हैं, पृथ्वी पर ही सोते हैं, आपका नाम लेकर बारंबार विलाप करते हैं।। ४।।
रटति पिकरसमुदाये प्रतिदिशमनुयाति।
हसति मनुजनिचये विरहमपलपति नेति।। तव विरहे०।। ५।।
हे प्रियतमे ! कोयलों की कुहू-कुहू करने पर श्रीकृष्ण चारों ओर उन्मत्त की भाँति दौड़ते हैं, इस पर सब लोग उन पर हँसते हैं, तब श्रीकृष्ण विरह को छिपाते हैं और उससे कहते हैं कि तुम मत 'रोओ' ।। ५।।
स्फुरति कलरवरावे स्मरति भणितमेव।
तवरतिसुखविभवे बहुगणयति गुणमतीव।। तव विरहे०।। ६।।
हे सखी ! पक्षियों के मनोहर कलरव को सुनकर श्रीकृष्ण को आपकी मधुर वाणी का स्मरण आ जाता है और आपकी रति के आनन्द का काल्पनिक अनुभव कर वे रतिसुख को बारंबार बखाना करते हैं।। ६।।
त्वदभिधशुभदमासं वदति नरि श्रृणोति।
तमपि जपति सरसं परयुवतिषु न रतिमुपैति।। तव विरहे०।। ७।।
हे प्रिये ! जब कोई प्राणी आपके नाम वाला मंगलमय वैशाख मास का नाम लेता है, तब श्रीकृष्ण उसे अति प्रेम के साथ सुनते हैं और जपते हैं, अन्य युवतियों के साथ रति भी नहीं करते।। ७।।
भणति कविजयदेव विरहविलसितेन।
मनसि रभसविभवे हरिरुदयति सकृतेन।। तव विरहे०।। ८।।
इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रजी के वियोगरुपी वर्णन से आनन्दयुक्त जयदेव कवि के अन्तःकरण में श्रीकृष्ण प्रकट हों।
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