भाग 11 अध्याय 4

अथ श्रीगीतगोविन्दम्
अथ   चतुर्थः   सर्गः ~३
सा रोमाञ्चति सीत्करोति विलपत्युत्कम्पते ताम्यति ध्यायत्युद्भ्रमति प्रमीलति पतत्युद्याति मूर्च्छत्यपि।
एतावत्यतनुज्वरे वरतनुर्जीवेन्न किं ते रसात्-स्वर्वैद्यप्रतिम प्रसीदसि यदित्यक्त्तो न्यथा हस्तकः।। १।।
हे हरि ! वह राधा कभी विरह रूप विकार से ज्ञान शून्य होतीं हैं, कभी शरीर में रोमाञ्च होने से काँपतीं हैं, कभी ग्लानी को प्राप्त होतीं हैं, कभी चिन्ता करतीं हैं, कभी अत्यन्त भ्रम को प्राप्त होतीं हैं, कभी नेत्रों को बन्द कर शय्या पर पड़ी रहती हैं, कभी-कभी इधर-उधर भ्रमवश खड़ी होकर देखतीं हैं और कभी मूर्च्छा को प्राप्त होतीं हैं; यह सब कामज्वर के चिन्ह राधाजी को सता रहे हैं। अश्वनि कुमारों (वैद्य) के तुल्य यदि आप प्रसन्न होकर राधाजी को दर्शन दें, तो क्या वह श्रग्ङार रस से जीवित न होंगी ? यदि वैद्य रूप आप न जायेंगे तो छोड़ दिया गया है हाथ जिसका, ऐसा समझ कर वह श्रीराधा अवश्य ही अपने प्राणों का त्याग कर देंगी।। १।।
स्मरातुरां दैवतवैद्यहृद्य त्वदग्ङसग्ङामृतमात्रसाध्यम्।
विमुक्तबाधां कुरुषे न राधामुपेन्द्र वज्रादपि दारुणो सि।। २।।
हे अश्वनिकुमारों के सदृश वैद्य ! यदि आप अपने शरीर स्पर्श रूपी औषधी से कामदेव से पीड़ित श्रीराधा को अच्छा नहीं करोगे, तो हम यह समझेंगे कि आपका हृदय इन्द्र के वज्र से भी अधिक कठोर है।। २।।
कंदर्पज्वरसंज्वरातुर तनोराश्र्चर्यमस्याश्र्चिरं चेतश्र्चन्दनचन्द्रमः कमलिनी-चिन्तासु संताम्यति ।
किन्तु क्लान्तिवशेन शीतलतनुं त्वामेकमेव प्रियं ध्यियन्ती रहसि स्थिता कथमपि क्षीणा क्षणं प्राणिति।। ३।।
हे कृष्ण ! कामज्वर से व्याकुल तथा कृश शरीर वाली श्रीराधा का चित्त चन्दन, चन्द्र और कमलिनी का ध्यान करने पर भी सन्तप्त हो रहा है, फिर भी शीतल देह वाले एक मात्र आप ही का ध्यान करती हुई वह एकान्त में येन-केन प्रकारेण जीवित हैं।। ३।।
क्षणमपि   विरहः   पुरा  न   सेहे
नयननिमीलनखिन्नया  यया  ते
श्र्वसिति कथमसौ रसालशाखां
चिरविरहेण विलोक्य पुष्पिताग्राम्।। ४।।
हे माधव ! भला जिस श्रीराधा को पहले, नेत्रों के पलक गिरने में भी उत्पन्न आपके दर्शन की बाधा से खेद होता था, वही श्रीराधा खिली हुई आम की मञ्जरी को देखकर कैसे जी सकती हैं।। ४।।
वृष्टिव्याकुलगोकुलावनरसादुद्धृत्य गोवर्धनं बिभ्रद्वल्लवसुन्दरीभिरधिकानन्दाच्चिरं चुम्बितः।
कन्दर्पेण तदर्पिताधरतटीसिन्दूरमुद्राक्ङितो बाहुर्गोपतनोस्तनोतु भवतां श्रेयांसि कंसद्विषः।। ५।।
इति श्रीगीतगोविन्दकाव्ये स्निग्धमाधवो नाम चतुर्थः सर्गः।। ४।।
वर्षा से व्याकुल गोकुल की रक्षा के हेतु गोवर्धन पर्वत को उखाड़ कर अपनी कनिष्ठिका अंगुली पर धारण करने वाले, व्रज सुन्दरियों द्वारा आनन्द पूर्वक दीर्घ काल तक चुम्बित और काम के वशीभूत हो गोपियों द्वारा रखे गये अधरों से लाल-लाल मुद्रायुक्त भुजाओं को धारण करने वाले गोप वेश धारी कंस के शत्रु आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आपका कलायाण करें।। ५।।
इस प्रकार से गीतगोविन्द काव्य के स्निग्धमाधव नामक चतुर्थ सर्ग पूर्ण हुआ।

Comments

Popular posts from this blog

भाग 1 अध्याय 1

भाग 2 अध्याय 1

65